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दू॒रे तन्नाम॒ गुह्यं॑ परा॒चैर्यत्त्वा॑ भी॒ते अह्व॑येतां वयो॒धै । उद॑स्तभ्नाः पृथि॒वीं द्याम॒भीके॒ भ्रातु॑: पु॒त्रान्म॑घवन्तित्विषा॒णः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dūre tan nāma guhyam parācair yat tvā bhīte ahvayetāṁ vayodhai | ud astabhnāḥ pṛthivīṁ dyām abhīke bhrātuḥ putrān maghavan titviṣāṇaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दू॒रे । तत् । नाम॑ । गुह्य॑म् । प॒रा॒चैः । यत् । त्वा॒ । भी॒ते इति॑ । अह्व॑येताम् । व॒यः॒ऽधै । उत् । अ॒स्त॒भ्नाः॒ । पृ॒थि॒वीम् । द्याम् । अ॒भीके॑ । भ्रातुः॑ । पु॒त्रान् । म॒घ॒ऽव॒न् । ति॒त्वि॒षा॒णः ॥ १०.५५.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:55» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में ‘इन्द्र’ परमात्मा है, उसके द्वारा सृष्टि के आरम्भ में ऋषियों को वेदमन्त्र प्रदान करना, ज्योतिष्मान् वस्तुओं में ज्योति भरना, मोक्ष में मानवमात्र का अधिकार आदि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) हे धनैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (पराचैः-तत्-नाम गुह्यं दूरे) पराङ्मुख हुए नास्तिक-उपासनारहित जनों द्वारा कहा हुआ गुप्त नाम उसके द्वारा प्राप्त करने में दूर है (यत्-त्वा भीते-अह्वयेताम्) कि डरे हुए पूर्वोक्त द्यावापृथ्वी ज्ञानप्रकाशवाले और अज्ञान अन्धकारवाले राजा प्रजाजन भय करते हुए तेरा आह्वान करते हैं या तुझे बुलाते हैं (वयोधै) जीवन धारण करने के लिये (पृथिवीं द्याम्-अभीके) दोनों द्यावापृथिवी लोक परस्पर आमने-सामने अथवा ज्ञानप्रकाशवाले और अज्ञानान्धकारवाले राजा प्रजा जन एक दूसरे की अपेक्षा आमने रखते हुए रहते हैं (उत् अस्तभ्नाः) तथा रक्षा करते हैं (भ्रातुः पुत्रान्) भ्राताओं और पुत्रों को या भरणीय पुत्रों को, पवित्र गुण-कर्म-स्वभाववाले ज्ञानप्रकाशवान् जनों को (तित्विषाणः) गुणों से प्रकाश करता हुआ पालन करता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो लोग नास्तिक हैं, ईश्वर की उपासना नहीं करते हैं, वे परमात्मा के रहस्यपूर्ण नामों को नहीं समझ सकते हैं। उन्हें ईश्वर का भय करना चाहिए। जड़जगत् में प्रमुख द्युलोक और पृथ्वीलोक प्रकाशक और प्रकाश्य लोक उससे भय करते हुए जैसे संसार में अपना काम करते हैं और चेतन जगत् में राज्य तथा प्रजा जन भी उससे भय करते हुए अपना-अपना कर्त्तव्यपालन करते हैं। परमात्मा पितृवत् सब प्राणियों का रक्षक है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अपनी शक्ति को पहचानो

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मघवन्) = सर्वैश्वर्यवन् प्रभो! आपका (गुह्यम्) = प्रत्येक व्यक्ति की हृदय रूप गुहा में निवास करनेवाला (तत् नाम) = वह प्रसिद्ध शत्रुओं को झुका देनेवाला बल (पराचैः) = [परा अञ्च् ] बहिर्मुखी वृत्तिवाले पुरुषों से दूरे दूर है । बहिर्मुखी वृत्तिवाले पुरुष आपको भूले रहते हैं और आपको भूल जाने से हृदयस्थ आपकी शक्ति का वे अनुभव नहीं कर पाते । परिणामतः काम-क्रोध- लोभ आदि शत्रुओं से वे सदा पीड़ित रहते हैं । [२] (यत्) = जो (भीते) = भयभीत हुए-हुए ये द्युलोक व पृथिवीलोक, अर्थात् सब प्राणी (त्वा) = आपको (अह्वयेताम्) = पुकारते हैं, तो वे (वयोधै) = अन्न के धारण के लिये ही । इन आर्तभक्तों की प्रार्थना आर्ति व पीड़ा को दूर करने के लिये ही होती है, वे सांसारिक चीजों की प्राप्ति की ही कामना व याचना करते हैं । [३] हे प्रभो ! आप तो (पृथिवीं द्याम्) = पृथ्वीलोक और द्युलोक को (उद् अस्तभ्नाः) = बड़े उत्कृष्ट रूप में थामे हुए हैं। ये पृथ्वीलोक व द्युलोक आपकी व्यवस्था के अनुसार (अभीके) = [अभि-अञ्च्] एक दूसरे की ओर गतिवाले हैं, पृथ्वी का जल वाष्पीभूत होकर ऊपर जाता है और द्युलोकस्थ सूर्य की किरणें निरन्तर इस पृथ्वीलोक में प्रकाश व प्राण शक्ति का संचार कर रही हैं। इस प्रकार ये पृथ्वी व द्युलोक हमारे माता-पिता के समान होकर हमारा पालन करते हैं। माता व पिता जिस प्रकार एक दूसरे के पूरक हैं उसी प्रकार पृथ्वी व द्युलोक भी एक दूसरे के पूरक हैं। [४] हे मघवन् ! आप (भ्रातुः) = ['भ्रातान्तरिक्षम्' अथर्व०] इस अन्तरिक्ष के (पुत्रान्) = [पुनाति त्रायते] पवित्र करनेवाले व रक्षण करनेवाले वायुओं को व विद्युतों को (तित्विषाणः) = दीप्त करनेवाले हैं। वायु तो (अच्छिद्र) = पवित्र है ही, विद्युत् भी दोषों को दग्ध करके हमारा त्राण करनेवाली है, विद्युत् चिकित्सा में विद्युत् के इसी गुण का लाभ लिया गया है। ये वायु व विद्युत् अन्तरिक्ष रूप भ्राता के मानों पुत्र ही हैं। [५] सब अन्नों व ओषधियों को देनेवाली पृथ्वी ('माता') = हैं। सूर्य के प्रकाश व प्राणशक्ति के द्वारा रक्षण करनेवाला द्युलोक ('पिता') = है, वायुओं व विद्युत् के द्वारा हमारा भरण करनेवाला अन्तरिक्ष ('भ्राता') है। इन सब में प्रभु की शक्ति को देखनेवाला 'बृहदुक्थ' = खूब स्तवन करनेवाला बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- पराङ्मुखी वृत्तिवाला मनुष्य हृदयस्थ प्रभु के बल का अनुभव नहीं कर पाता ।
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते ‘इन्द्र’शब्देन परमात्मा गृह्यते, तद्द्वारा सृष्टेरारम्भे-ऋषिभ्यो वेदमन्त्रप्रदानं ज्योतिष्मति वस्तूनि ज्योतिः संस्थापनं मोक्षे मनुष्यमात्रस्याधिकार इत्येवमादयो विषयाः सन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) हे धनैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (पराचैः-तत्-नाम गुह्यं दूरे) पराङ्मुखैर्नास्तिकैरुपासनारहितैस्तदुक्तं नाम गुह्यं गुप्तमपि तु दूरेऽस्ति (यत्-त्वा भीते-अह्वयेताम्) यदा खलु पूर्वोक्ते रोदसी द्यावापृथिव्यौ भयङ्कुर्वाणे, यद्वा ज्ञानप्रकाशवदज्ञानान्धकारवन्तौ राजप्रजाजनौ वा भयङ्कुर्वाणौ-आमन्त्रयेते (वयोधै) जीवनधारणाय (पृथिवीं द्याम्-अभीके) उभे-अपि द्यावापृथिव्यौ परस्परमभ्यक्ते सापेक्षे वर्तेते यद्वा ज्ञानप्रकावदज्ञानान्धकारवन्तौ राजप्रजाजनौ परस्परमभ्यक्तौ ‘अभीके-अभ्यक्ते’ [निघ० ३।२०] सापेक्षौ वर्तेते, (उत् अस्तभ्नाः) उत्तम्भयति रक्षति (भ्रातुः-पुत्रान्) भ्रातॄन् भरणीयान् ‘विभक्तिवचनव्यत्ययः’ पुत्रान्-पवित्रगुणस्वभावयुक्तान् ज्ञानप्रकाशवतो जनान् “पुत्रान् पवित्रगुणस्वभावान्” [यजु० ३७।२० दयानन्दः] (तित्विषाणः) गुणैः प्रकाशयन् बिभर्तीति शेषः ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Far too distant and far too deep is that name and lustre, O lord of glory, Indra, for indifferent people to understand and appreciate which the heaven and earth struck with awe call upon for sustenance. O lord of glory, you sustain both heaven and earth in space in complementarity with each other and illuminate the rays of the sun and lightning of the cloud, both brotherly providers of sustenance to life.