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तन्तुं॑ त॒न्वन्रज॑सो भा॒नुमन्वि॑हि॒ ज्योति॑ष्मतः प॒थो र॑क्ष धि॒या कृ॒तान् । अ॒नु॒ल्ब॒णं व॑यत॒ जोगु॑वा॒मपो॒ मनु॑र्भव ज॒नया॒ दैव्यं॒ जन॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tantuṁ tanvan rajaso bhānum anv ihi jyotiṣmataḥ patho rakṣa dhiyā kṛtān | anulbaṇaṁ vayata joguvām apo manur bhava janayā daivyaṁ janam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तन्तु॑म् । त॒न्वन् । रज॑सः । भा॒नुम् । अनु॑ । इ॒हि॒ । ज्योति॑ष्मतः । प॒थः । र॒क्ष॒ । धि॒या । कृ॒तान् । अ॒नु॒ल्ब॒णम् । व॒य॒त॒ । जोगु॑वाम् । अपः॑ । मनुः॑ । भ॒व॒ । ज॒नय॑ । दैव्य॑म् । जन॑म् ॥ १०.५३.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:53» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तन्तुं तन्वन्) हे गृहस्थ के कुल-पितृकुल में या गुरुकुल में उत्पन्न या निष्णात विद्वन् ! तू सन्ततिक्रम का शिष्यक्रम का विस्तार करता हुआ या विस्तार करने के हेतु (रजसः-भानुम्-अनु इहि) मनोरञ्जन के या अध्यात्मरञ्जन के परम्परा से प्रसिद्ध ज्ञान का अनुष्ठान कर (धिया कृतान्) कर्म से किये या बुद्धि से किये (ज्योतिष्मतः पथः-रक्ष) बहुत न्याययुक्त मार्गों का पालन कर (जोगुवाम्-अनुल्बणम्-अपः-वयत) उत्तम उपदेश करनेवालों के दोषरहित कर्म को जीवन में बढ़ा (मनुः-भव) मननशील हो (दैव्यं जनं जनय) दिव्यगुणवाले को उत्पन्न कर तथा शिष्य को तैयार कर ॥६॥
भावार्थभाषाः - मानव को चाहिए श्रेष्ठ सन्तान और श्रेष्ठ शिष्य का विस्तार करे। अपने जीवन में धर्म्य मार्गों का आलम्बन करते हुए मननशील होकर उत्तम गुणयुक्त पुत्र और शिष्य के निर्माण में यत्न करता रहे ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कर्म - सूत्र

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु के आदेश को सुनकर देव एक दूसरे को सन्देश देते हुए कहते हैं कि - (तन्तुं तन्वन्) = कर्मतन्तु का विस्तार करता हुआ तू (रजसः) = हृदयान्तरिक्ष के भानुम् प्रकाशक उस प्रभु के (अनु इहि) = प्रेरणा के अनुसार चल । गत मन्त्रों में प्रभु ने 'पंचजना:' शब्द से सम्बोधन करते हुए यही प्रेरणा दी है कि [क] तुम 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' इन पाँच भूतों का ठीक से विकास करनेवाले होवो। [ख] पाँचों कर्मेन्द्रियों की शक्ति का विकास ठीक प्रकार हो, [ग] पाँचों ज्ञानेन्द्रिय ज्ञान का विकास करें, [घ] पाँचों प्राण तुम्हारे में विकसित शक्तिवाले हों, [ङ] 'हृदय, मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार' रूप अन्तःकरण पञ्चक की शक्ति का भी विकास करो। प्रभु इस प्रकार की प्रेरणाएँ हृदयस्थरूपेण सदा दे रहे हैं । हमें उस प्रेरणा को सुनना चाहिए और उसके अनुसार जीवन को बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रभु की प्रेरणा को सुनना ही उस प्रकाशक प्रभु के अनुकूल चलता है। [२] इस प्रकार प्रभु की प्रेरणा को सुनने के द्वारा (ज्योतिष्मतः पथः रक्ष) = ज्योतिर्मय मार्गों का, देवयान का रक्षण कर । इन प्रकाशमय मार्गों पर चलने से कभी कष्ट नहीं होता। ये प्रकाशमय मार्ग (धियाकृतान्) = बुद्धिपूर्वक कर्मों से सम्पादित होते हैं । इन मार्गों में ज्ञान व कर्म का समन्वय होता है । [३] (जोगुवां अपः) = स्तोताओं के कर्मों को (अनुल्बणम्) = [उल्बण=much lxessine] अति के बिना (वयत) = करो । प्रभु के स्तोता किसी भी कर्म में अति नहीं करते। ये आहार-विहार में, सब कर्मों में सोने व जागने में सदया नपी-तुली क्रियाओंवाले होते हैं। प्रभु का स्तोता सदा मध्यमार्ग पर चलता है, किसी भी पक्ष में [side] न झुकता हुआ पक्षपातरहित न्याय्य क्रियाओंवाला होता है। [४] (मनुः भव) = तू सदा विचारशील हो। बिना विचारे क्रियाओं का करनेवाला न हो। अविवेक ही तो सब आपत्तियों का कारण होता है। इस प्रकार विचारपूर्वक कर्म करने के द्वारा तू (दैव्यं जनम्) = उस देव की ओर चलनेवाले व्यक्ति को (जनय) = उत्पन्न कर। तू अपने को देव के रूप में विकसित करनेवाला हो । मनुष्य से तू देव बन जाए। अविवेक से चलता हुआ तू पशु न बन जाये ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु प्रेरणा के अनुसार कर्म को कर। देवयान मार्ग पर चल । स्तोताओं की तरह सदा अति से दूर रहते हुए कर्म को कर । विचारपूर्वक कर्म करने से देव बन ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (तन्तुं तन्वन् रजसः-भानुम्-अन्विहि) हे गृहस्थस्य कुले पितृकुले गुरुकुले जातो निष्णातो विद्वन् त्वं सन्ततिक्रमं शिष्यक्रमं विस्तारयन्-विस्तारयितुं मनोरञ्जनस्याध्यात्मरञ्जनस्य भानुं परम्परया प्रसिद्धं ज्ञानमनुगच्छानुतिष्ठ (धिया कृतान्) कर्मणा कृतान् “धीः कर्मनाम” [निघ० २।१] “धीः प्रज्ञानाम” [निघ० ३।९] यद्वा बुद्ध्या कृतान् (ज्योतिष्मतः पथः-रक्ष) बहुन्याययुक्तान् मार्गान् “ज्योतिष्मत्-बहुन्याययुक्तम्” [ऋ० १।१३६।३ दयानन्दः] रक्ष-आचर (जोगुवाम्-अनुल्बणम्-अपः-वयत) भृशमुपदेष्टॄणां दोषरहितं कर्म “अपः कर्मनाम” [निघ० २।१] प्रतानय (मनुः-भव) मननशीलो भव (दैव्यं जनं जनय)  दिव्यगुणयुक्तं पुत्रं शिष्यं वा उत्पादय सम्पादय वा ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Spinning and expanding the thread of life divine, pursue the light of the sun across the skies and space. Protect and follow the paths of light created by the wise with thought and vision. Weave the web of the sinless spontaneous men of word and vision in action. Be Man, build up a community of enlightened people, human and close to divinity.