पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु के आदेश को सुनकर देव एक दूसरे को सन्देश देते हुए कहते हैं कि - (तन्तुं तन्वन्) = कर्मतन्तु का विस्तार करता हुआ तू (रजसः) = हृदयान्तरिक्ष के भानुम् प्रकाशक उस प्रभु के (अनु इहि) = प्रेरणा के अनुसार चल । गत मन्त्रों में प्रभु ने 'पंचजना:' शब्द से सम्बोधन करते हुए यही प्रेरणा दी है कि [क] तुम 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' इन पाँच भूतों का ठीक से विकास करनेवाले होवो। [ख] पाँचों कर्मेन्द्रियों की शक्ति का विकास ठीक प्रकार हो, [ग] पाँचों ज्ञानेन्द्रिय ज्ञान का विकास करें, [घ] पाँचों प्राण तुम्हारे में विकसित शक्तिवाले हों, [ङ] 'हृदय, मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार' रूप अन्तःकरण पञ्चक की शक्ति का भी विकास करो। प्रभु इस प्रकार की प्रेरणाएँ हृदयस्थरूपेण सदा दे रहे हैं । हमें उस प्रेरणा को सुनना चाहिए और उसके अनुसार जीवन को बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रभु की प्रेरणा को सुनना ही उस प्रकाशक प्रभु के अनुकूल चलता है। [२] इस प्रकार प्रभु की प्रेरणा को सुनने के द्वारा (ज्योतिष्मतः पथः रक्ष) = ज्योतिर्मय मार्गों का, देवयान का रक्षण कर । इन प्रकाशमय मार्गों पर चलने से कभी कष्ट नहीं होता। ये प्रकाशमय मार्ग (धियाकृतान्) = बुद्धिपूर्वक कर्मों से सम्पादित होते हैं । इन मार्गों में ज्ञान व कर्म का समन्वय होता है । [३] (जोगुवां अपः) = स्तोताओं के कर्मों को (अनुल्बणम्) = [उल्बण=much lxessine] अति के बिना (वयत) = करो । प्रभु के स्तोता किसी भी कर्म में अति नहीं करते। ये आहार-विहार में, सब कर्मों में सोने व जागने में सदया नपी-तुली क्रियाओंवाले होते हैं। प्रभु का स्तोता सदा मध्यमार्ग पर चलता है, किसी भी पक्ष में [side] न झुकता हुआ पक्षपातरहित न्याय्य क्रियाओंवाला होता है। [४] (मनुः भव) = तू सदा विचारशील हो। बिना विचारे क्रियाओं का करनेवाला न हो। अविवेक ही तो सब आपत्तियों का कारण होता है। इस प्रकार विचारपूर्वक कर्म करने के द्वारा तू (दैव्यं जनम्) = उस देव की ओर चलनेवाले व्यक्ति को (जनय) = उत्पन्न कर। तू अपने को देव के रूप में विकसित करनेवाला हो । मनुष्य से तू देव बन जाए। अविवेक से चलता हुआ तू पशु न बन जाये ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु प्रेरणा के अनुसार कर्म को कर। देवयान मार्ग पर चल । स्तोताओं की तरह सदा अति से दूर रहते हुए कर्म को कर । विचारपूर्वक कर्म करने से देव बन ।