पदार्थान्वयभाषाः - [१] अग्नि प्रभु कहते हैं कि (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (हव्यावाहम्) = सब हव्य पदार्थों के देनेवाले (माम्) = मुझे (दधिरे) = धारण करते हैं। उस मुझे जो कि (अपम्लुक्तम्) = [अपक्रम्य आगतम्] प्रतिक्षण इस देने के काम से भयभीत होकर दूर आ गया हूँ 'होत्रादहं वरुण विभ्यदाय', अथवा अज्ञानियों की दृष्टि से ओझल हूँ । परन्तु फिर भी (कृच्छ्रा) = कष्टों में (बहु चरन्तम्) = खूब विचरण करता हूँ। लोग मुझे भूले रहते हैं, परन्तु कष्टों के आने पर मेरा खूब ही स्मरण करते हैं। feast [फ़ीस्ट] में मैं उन्हें भूला रहता हूँ पर fast [फ़ास्ट] में तो वे मेरा भरपूर स्मरण करते ही हैं। इस मुझको देव सदा स्मरण करते हैं। [२] मेरा स्मरण करता हुआ (अग्निः) = प्रगतिशील (विद्वान्) = ज्ञानी पुरुष (नः) = हमारे, मेरे द्वारा वेदवाणी में प्रतिपादित (यज्ञम्) = यज्ञ को (कल्पयाति) = सिद्ध करता है । उस यज्ञ को सिद्ध करता है जो (पञ्चयामम्) = पाँच मार्गांवाला है, 'ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ' इन पाँच रूपों में चलता है (त्रिवृतम्) = [त्रिषु वर्तते] २४ वर्ष के प्रातः सवन में, ४४ वर्ष के माध्यन्दिन सवन में तथा ४८ वर्ष के तृतीय सवन में सदा रहता है इसीलिए 'जरामर्य' कहलाता है 'जरया ह्येवैतस्मान्मुच्यते मृत्युनावा' इस यज्ञ से तो तभी छुटकारा होता है यदि अत्यन्त जीर्णत, आजाय या मृत्यु ही हो जाए। (सप्ततन्तुम्) = यह यज्ञ वेद के सात छन्दों में विभक्त मन्त्रों से विस्तृत किया जाता है। यज्ञों में बोले जानेवाले मन्त्र सात छन्दों में हैं, सो वह यज्ञ भी 'सप्त तन्तु' है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - देव हव्यवाह प्रभु का धारण करते हैं । अज्ञानियों से प्रभु दूर हैं, वे तो कष्ट पड़ने पर ही प्रभु का स्मरण करते हैं। ज्ञानी देव तो सदा प्रभु-प्रतिपादित यज्ञों को अपनाते हैं ।