पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (विप्र) = [वि- प्रा पूरणे] विशेषरूप से सबका पूरण करनेवाले प्रभो ! (ये) = जो व्यक्ति (ते) = आपके हैं वे (सुते) = सोमयज्ञों के होने पर (सचा) = मिलकर (ब्रह्मकृतः) = मन्त्रों का उच्चारण करनेवाले व ज्ञान का सम्पादन करनेवाले होते हैं । [२] इसके अतिरिक्त वे (वसूनां च) = सांसारिक धनों के, निवास के लिये आवश्यक अन्न-वस्त्र आदि वस्तुओं के (च) = और (वसुनः) = निवास को उत्तम बनाने के लिये आवश्यक ज्ञानरूप धन के दावने [दानाय ] दान के लिये होते हैं । प्रभु के भक्त जहाँ यज्ञमय जीवन बिताते हुए ज्ञान का साधन करते हैं, वहाँ वे भौतिक धनों के व ज्ञान धन के देनेवाले होते हैं। [३] (ते) = आपके व्यक्ति (सुम्नस्य) = स्तोत्रों के (पथा) = मार्ग से (मनसा) = मनन के साथ (प्र भुवन्) = प्रकर्षेण होते हैं। प्रभु-प्रवण व्यक्ति सदा विचारपूर्वक प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं, ये प्रभु के नाम का जप करते हैं और उसके अर्थ का चिन्तन करते हैं । [४] ये प्रभु- भक्त लोग (सोम्यस्य अन्धसः) = सोम्य अन्न के तथा (सुतस्य) = उस अन्न से उत्पन्न सोम के [semen = वीर्य के] मदे हर्ष में निवास करते हैं। ये लोग आग्नेय भोजनों को न करके सोम्य भोजनों को करनेवाले बनते हैं और उन भोजनों से उत्पन्न सोम शक्ति के रक्षण से उल्लासमय जीवनवाले होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु के व्यक्ति वे हैं जो - [क] मिलकर यज्ञों में मन्त्रोच्चारण करते हैं, [ख] भौतिक धनों व ज्ञानधन के देनेवाले होते हैं, [ग] मनन के साथ प्रभु के नाम का जप करते हैं, [घ] सोम्य भोजनों से उत्पन्न शक्ति के रक्षण से उल्लासमय जीवनवाले होते हैं । सूक्त के प्रारम्भ में कहा है कि प्रभु हमें 'ज्ञान, बल व ऐश्वर्य' प्राप्त कराते हैं, [१] वे हमारा सब प्रकार से हित करते हैं, [२] आनन्द में वे ही हैं जो प्रभु प्रेरणा को सुनते हैं, [३] प्रभु ही सर्वमहान् मन्त्र हैं, [४] वे ही सर्वरक्षक हैं, [५] प्रभु का वरण शरीर व मन के स्वास्थ्य के द्वारा होता है, [६] प्रभु-भक्त सोम्य भोजन ही करते हैं, [७] सोम्य भोजन से देववृत्ति का बनकर ही व्यक्ति प्रभु का दर्शन करता है-