शरीर व मन के स्वास्थ्य के द्वारा प्रभु का वरण
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एता विश्वा सवना) = इन सब यज्ञों को (तूतुमा) = शीघ्रता से पूर्ण होनेवाला (कृषे) = आप करते हैं। प्रभु कृपा से ही यज्ञ पूर्ण होते हैं । [२] हे (सहसः) = सूनो शक्ति के पुत्र शक्ति के पुञ्ज प्रभो! ये यज्ञ वे हैं (यानि) = जिनको (स्वयम्) = आप स्वयं (दधिषे) = धारण करते हैं, प्रभु यज्ञों का धारण करनेवाले हैं, वे ही इन्हें शीघ्रता से पूर्ण करते हैं । [३] हे प्रभो ! (ते वराय) = आपके वरण के लिये (पात्रम्) = रक्षण है । अर्थात् आपका वरण वही व्यक्ति कर पाता है जो अपना रक्षण करता है । जो शरीर को रोगों से बचाता है और मन को ईर्ष्या-द्वेष आदि से आक्रान्त नहीं होने देता । स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मन हमें प्रभु प्राप्ति के योग्य बनाते हैं। [४] (धर्मणे) = धारण के लिये (तना) = धन है, (यज्ञः) = यज्ञ है, (मन्त्रः) = मन्त्र है और (ब्रह्मोद्यतं) = ब्रह्म से दिया हुआ [उद्यम् = to offer, give ] (वचः) = वचन है। संसार में जीवनयात्रा को ठीक से चलाने के लिये तथा शरीर व मन के स्वास्थ्य के लिये धन की आवश्यकता तो होती ही है [तना], उन धनों का यज्ञों में विनियोग और यज्ञशेष का सेवन ही अमृतत्व का साधक है [यज्ञः] । यज्ञमय जीवन बनाने के लिये विचार व मनन आवश्यक है [मंत्र:] इस विचार व मनन के लिये सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु से दी गई वेदवाणी आधार बनती है [ब्रह्मोद्यतं वचः] । एवं ये 'धन, यज्ञ, मन्त्र व ब्रह्मोद्यत वाणी' सब हमारे धारण के साधन बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम यज्ञशील बनें, प्रभु हमारे यज्ञों का रक्षण करेंगे। प्रभु के वरण के लिये शरीर व मन का स्वस्थ बनाना आवश्यक है । इनके धारण के लिये धन तो आवश्यक है ही, पर उस धन का यज्ञों में विनियोग नितान्त आवश्यक है ।