सप्त नाड़ी चक्र का स्वास्थ्य शरीर व मानस स्वास्थ्य
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार शक्ति को प्राप्त कराके प्रभु ही हमें स्वस्थ बनाते हैं । प्रस्तुत मन्त्र में उस स्वास्थ्य का कुछ विस्तार से उल्लेख करते हैं। शरीर में नाड़ियों के अन्दर रुधिर - प्रवाह के ठीक से होने पर ही स्वास्थ्य का निर्भर है। वह शरीर में इन रुधिर-वाहिनी नाड़ियों का जाल- सा बिछा हुआ है। उन में सात नाड़ियाँ प्रमुख हैं। वे ही अन्यत्र 'गंगा-यमुना-सरस्वती' आदि नदियों के रूप में चित्रित हुई हैं। इन नाड़ियों के इन वैदिक नामों को ही देखकर बाह्य नदियों को भी प्रारम्भिक आर्यों ने ये नाम दे दिये। वेद में वस्तुतः इन बाह्य नदियों का वर्णन हो, सो बात नहीं है। प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं ही (वृषा) = सब प्रकार के सुखों का वर्षण करनेवाला (सप्त) = इन सात (स्त्रवतः) = रुधिर के बहाववाली (द्रविल्वः) = निरन्तर द्रवण करती हुई, (पृथिव्याम्) = इस शरीर रूप पृथिवी में (सीराः) = सरणशील इन नाड़ीरूप नदियों को (अधि-धारयम्) = अधिष्ठातृरूपेण धारण करता हूँ और (अहम्) = मैं ही (सुक्रतुः) = उत्तम क्रतुओंवाला, उत्तम क्रियाओंवाला होता हुआ इन नाड़ियों में (अर्णांसि) = रुधिररूप जलों को (वितिरामि) = देता हूँ । हृदय देश से इस रुधिर रूप जल का प्रसार होता है। शरीर में सर्वत्र विचरण करके यह फिर उसी हृदयदेश में पहुँचता है। उसी प्रकार, जैसे कि नदियों का जल समुद्र में जाकर फिर से वाष्पीभूत होकर बादलों के रूप में आता है और पर्वतों पर वृष्टि होकर फिर से नदियों में प्रवाहित होने लगता है। प्रभु का यह अर्थ कितना महान् व अद्भुत है। इसी प्रकार नाड़ियों में रुधिर प्रवाह की बात है । इस रुधिर के ठीक अभिसरण से शरीर का स्वास्थ्य ठीक रहता है। [२] शरीर के स्वास्थ्य के साथ, मानस- स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिये, प्रभु कहते हैं कि मैं ही (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (इष्टये) = इष्ट व लक्ष्यभूत स्थान की प्राप्ति के लिये (युधा) = काम-क्रोधादि वासनाओं से युद्ध के द्वारा (गातुम्) = मार्ग को (विदम्) = प्राप्त कराता हूँ। काम-क्रोधादि ही तो हमें मार्ग-भ्रष्ट करके लक्ष्य प्राप्ति से वञ्चित कर देते हैं । इनके साथ युद्ध में प्रभु हमारे सारथि होते हैं । उस प्रभु के साहाय्य से ही हम इन्हें पराजित कर पाते हैं । इनके पराजित होने पर, मार्ग से विचलित न होते हुए हम लक्ष्य स्थान पर पहुँचनेवाले बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु, नाड़ियों में रुधिर के ठीक प्रकार से अभिसरण की व्यवस्था करके हमें शारीरिक स्वास्थ्य देते हैं और काम-क्रोधादि को पराजित करके हमें मानस - स्वास्थ्य प्राप्त कराते हैं। स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मनवाले बनकर हम मार्ग पर आगे बढ़ते हैं और लक्ष्य पर पहुँचनेवाले होते हैं।