पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु कहते हैं कि - (इन्द्रं नाम) = परमैश्वर्यवाला व परम शक्तिमान् [इदि परमैश्वर्ये, इन्द्र to be powerful] होने से 'इन्द्र' नामवाले (माम्) = मुझको (देवताः धुः) = देवलोग धारण करते हैं । वस्तुतः मुझे धारण करने के कारण ही वे देव बनते हैं। देव तो प्रभु का सदा स्मरण करते ही हैं, देवों के अतिरिक्त (दिवः च) द्युलोक के भी, (ग्मः च) = इस पृथ्वीलोक के भी (च) = तथा (अपाम्) = अन्तरिक्षलोक के (जन्तवः) = प्राणी भी मुझे धारण करते हैं। कष्ट आने पर सभी प्रभु का स्मरण करते हैं। [२] (अहम्) = मैं ही (हरी) = ज्ञान व कर्म के द्वारा दुःखों को दूर करने के कारणभूत [हरणात् हरेः ] इन्द्रियाश्वों को, जो (वृषणा) = शक्तिशाली हैं, (विव्रता) = विविध व्रतोंवाले हैं, प्रत्येक इन्द्रिय का अपना अलग-अलग कार्य है, (रघू) = जो लघुगतिवाले हैं, तीव्रगति से अपना-अपना कार्य करनेवाले हैं, इस प्रकार के इन्द्रियाश्वों को (आददे) = स्वीकार करता हूँ । प्रभु ही हमें इस प्रकार के इन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले हैं । [३] प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं ही (धृष्णु) = कामादि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले (वज्रम्) = क्रियाशीलता रूप वज्र को (शवसे) = शक्ति के लिये (आददे) = स्वीकार करता हूँ। प्रभु हमें यह क्रियाशीलता रूप वज्र प्राप्त कराते हैं, इससे हम जहाँ शत्रुओं का धर्षण करने में समर्थ होते हैं वहाँ अपनी शक्ति का वर्धन करनेवाले होते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का धारण करके ही देव देव बने हैं । दुःख में सभी प्रभु का धारण करनेवाले बनते हैं। प्रभु ही हमें उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं । और क्रियाशीलता के द्वारा वे हमारी शक्ति का वर्धन करते हैं और हमें इस योग्य बनाते हैं कि हम कामादि शत्रुओं को कुचल सकें।