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मह्यं॒ त्वष्टा॒ वज्र॑मतक्षदाय॒सं मयि॑ दे॒वासो॑ऽवृज॒न्नपि॒ क्रतु॑म् । ममानी॑कं॒ सूर्य॑स्येव दु॒ष्टरं॒ मामार्य॑न्ति कृ॒तेन॒ कर्त्वे॑न च ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahyaṁ tvaṣṭā vajram atakṣad āyasam mayi devāso vṛjann api kratum | mamānīkaṁ sūryasyeva duṣṭaram mām āryanti kṛtena kartvena ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मह्य॑म् । त्वष्टा॑ । वज्र॑म् । अ॒त॒क्ष॒त् । आ॒य॒सम् । मयि॑ । दे॒वासः॑ । अ॒वृ॒ज॒न् । अपि॑ । क्रतु॑म् । मम॑ । अनी॑कम् । सूर्य॑स्यऽइव । दु॒स्तर॑म् । माम् । आर्य॑न्ति । कृ॒तेन॑ । कर्त्वे॑न । च॒ ॥ १०.४८.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:48» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मह्यम्) मुझे प्रदर्शित करने को (त्वष्टा-आयसं वज्रम्-अतक्षत्) सूर्य अपने ज्योतिःस्वरूप ओज को प्रकट करता है (मयि) मेरे लिए (देवासः-क्रतुम्-अपि-अवृजन्) मुमुक्षुजन कर्म-अध्यात्मकर्म-ध्यान समर्पित करते हैं (मम-अनीकं सूर्यस्य-इव दुष्टरम्) मेरा बल-तेजोबल सूर्य जैसा अतितीक्ष्ण है (कृतेन कर्त्वेन च माम्-आर्यन्ति) पिछले किये कर्म और आगे किये जानेवाले कर्म के द्वारा मुझे प्राप्त होते हैं, फल पाने के लिए ॥३॥
भावार्थभाषाः - सूर्य अपने तापप्रकाश के देनेवाले परमात्मा को प्रदर्शित करता है। मुमुक्षुजन स्तुति-प्रार्थना-उपासना ईश्वर के प्रति समर्पित करते हैं तथा कर्म करनेवाले मनुष्य फल पाने के लिए भी परमात्मा के अधीन हैं ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कर्म द्वारा प्रभु प्राप्ति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु कहते हैं कि (मह्यम्) = मेरे लिये, अर्थात् मेरी प्राप्ति के लिये (त्वष्टा) = [त्विषेर्वा स्याद् दीतिकर्मणः नि०] ज्ञान से अपने को दीप्त करनेवाला भक्त (आयसं वज्रम्) = लोहे के बने हुए वज्र को (अतक्षत्) = बनाता है। 'वज्र' का अर्थ है क्रियाशीलता [वज गतौ] 'आयस' का अभिप्राय है अनथक क्रियाशीलता । 'इसकी टांगें तो मानो लोहे की बनी हुई हैं' इस वाक्य प्रयोग में यह भाव स्पष्ट है। प्रभु की प्राप्ति के लिये जहाँ ज्ञान आवश्यक है, वहाँ क्रियाशीलता नितान्त आवश्यक है । अकर्मण्य जीवनवाला प्रभु को कभी नहीं प्राप्त होता । [२] (मयि) = मेरे में (देवासः) = देववृत्ति के लोग (क्रतुम्) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को (अवृजन्) = छोड़ते हैं । अर्थात् वे कर्म करते हैं और उन कर्मों को मेरे अर्पण करते चलते हैं, [३] (मम) = मेरा (अनीकम्) = तेज (सूर्यस्य इव) = सूर्य के तेज की तरह (दुष्टरम्) = दुस्तर है । जैसे सूर्य के तेज का रोग - कृमियों से पराभव नहीं होता, इसी प्रकार प्रभु के तेज को वासनाएँ आक्रान्त नहीं कर पातीं। जिस हृदय में प्रभु का वास है, वहाँ वासना का प्रदेश नहीं । प्रभु के तेज में वासनाएँ विदग्ध हो जाती हैं। [४] (माम्) = मुझे ये ज्ञानी भक्त (आर्यन्ति) = प्राप्त होते हैं, (कृतेन) = अब तक किये हुए कर्मों से (च) = और (कर्त्वन) = आगे किये जानेवाले कर्मों से । कर्म से ही प्रभु का पूजन होता है। यह कर्मों के द्वारा प्रभु का पूजन ही हमें मोक्ष को प्राप्त कराता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का पूजन कर्मों से ही होता है । यही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है, 'कर्म करना, पर उसका गर्व न करना'।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मह्यम्) मदर्थ मां द्योतयितुम् (त्वष्टा-आयसं वज्रम् अतक्षत्) सूर्यः “त्वष्टारं छेदनकर्तारं सूर्यम्” [यजु० २२।९ दयानन्दः] तेजोमयं ज्योतिर्मयम् “आयसं तेजोमयम्” [ऋ० १।८०।११२ दयानन्दः] वज्रमोजो बलं करोति “तक्षति करोतिकर्मा” [निरु० ४।१९] (मयि) मदर्थं (देवासः-क्रतुम्-अपि-अवृजन्) मुमुक्षवः कर्माध्यात्मकर्मध्यानं समर्पयन्ति (मम-अनीकं सूर्यस्य-इव दुष्टरम्) मम बलं तेजोबलं सूर्यस्य यथा तीक्ष्णतरं भवति तद्वत् (कृतेन कर्त्वेन च माम्-आर्यन्ति) कृतेनाथ कर्त्तव्येन करिष्यमाणेन च मां प्राप्नुवन्ति फलाय ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - For me, Tvashta, formative faculty of divine nature, creates the thunderbolt of steel. For me, the divinities of nature and humanity perform their tasks and surrender them unto me. My blazing power is insurmountable like the sun’s, and all actions past, present and future in nature or humanity must come to me for effectual fulfilment.