कर्म द्वारा प्रभु प्राप्ति
पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु कहते हैं कि (मह्यम्) = मेरे लिये, अर्थात् मेरी प्राप्ति के लिये (त्वष्टा) = [त्विषेर्वा स्याद् दीतिकर्मणः नि०] ज्ञान से अपने को दीप्त करनेवाला भक्त (आयसं वज्रम्) = लोहे के बने हुए वज्र को (अतक्षत्) = बनाता है। 'वज्र' का अर्थ है क्रियाशीलता [वज गतौ] 'आयस' का अभिप्राय है अनथक क्रियाशीलता । 'इसकी टांगें तो मानो लोहे की बनी हुई हैं' इस वाक्य प्रयोग में यह भाव स्पष्ट है। प्रभु की प्राप्ति के लिये जहाँ ज्ञान आवश्यक है, वहाँ क्रियाशीलता नितान्त आवश्यक है । अकर्मण्य जीवनवाला प्रभु को कभी नहीं प्राप्त होता । [२] (मयि) = मेरे में (देवासः) = देववृत्ति के लोग (क्रतुम्) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को (अवृजन्) = छोड़ते हैं । अर्थात् वे कर्म करते हैं और उन कर्मों को मेरे अर्पण करते चलते हैं, [३] (मम) = मेरा (अनीकम्) = तेज (सूर्यस्य इव) = सूर्य के तेज की तरह (दुष्टरम्) = दुस्तर है । जैसे सूर्य के तेज का रोग - कृमियों से पराभव नहीं होता, इसी प्रकार प्रभु के तेज को वासनाएँ आक्रान्त नहीं कर पातीं। जिस हृदय में प्रभु का वास है, वहाँ वासना का प्रदेश नहीं । प्रभु के तेज में वासनाएँ विदग्ध हो जाती हैं। [४] (माम्) = मुझे ये ज्ञानी भक्त (आर्यन्ति) = प्राप्त होते हैं, (कृतेन) = अब तक किये हुए कर्मों से (च) = और (कर्त्वन) = आगे किये जानेवाले कर्मों से । कर्म से ही प्रभु का पूजन होता है। यह कर्मों के द्वारा प्रभु का पूजन ही हमें मोक्ष को प्राप्त कराता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का पूजन कर्मों से ही होता है । यही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है, 'कर्म करना, पर उसका गर्व न करना'।