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अ॒हमिन्द्रो॒ रोधो॒ वक्षो॒ अथ॑र्वणस्त्रि॒ताय॒ गा अ॑जनय॒महे॒रधि॑ । अ॒हं दस्यु॑भ्य॒: परि॑ नृ॒म्णमा द॑दे गो॒त्रा शिक्ष॑न्दधी॒चे मा॑त॒रिश्व॑ने ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aham indro rodho vakṣo atharvaṇas tritāya gā ajanayam aher adhi | ahaṁ dasyubhyaḥ pari nṛmṇam ā dade gotrā śikṣan dadhīce mātariśvane ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒हम् । इन्द्रः॑ । रोधः॑ । वक्षः॑ । अथ॑र्वणः । त्रि॒तायः॑ । गाः । अ॒ज॒न॒य॒म् । अहेः॑ । अधि॑ । अ॒हम् । दस्यु॑ऽभ्यः । परि॑ । नृ॒म्णम् । आ । द॒दे॒ । गो॒त्रा । शिक्ष॑न् । द॒धी॒चे । मा॒त॒रिश्व॑ने ॥ १०.४८.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:48» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्-इन्द्रः) मैं ऐश्वर्यवान् परमात्मा (अथर्वणः) अचल योगी का-अहिंसक विद्वान् का (वक्षः-रोधः) ज्ञानप्रकाशक का अज्ञाननिवारक हूँ (त्रिताय-अहेः-गाः-अधि-अजनयम्) स्तुति-प्रार्थना-उपासना तीनों का विस्तार करनेवाले आध्यात्मिक और पापनाशक जन के लिए मैं वेदवाणियों को उत्पन्न करता हूँ (अहम्) मैं परमात्मा (दस्युभ्यः-नृम्णं परि आ वदे) अन्यों के पीडक जन के धन को स्वाधीन करता हूँ-लेता हूँ (मातरिश्वने दधीचे गोत्रा-शिक्षन्) माता के गर्भ में जानेवाले अर्थात् ध्यानी जीवात्मा के लिए सामान्य वाणियों को देता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा योगी-स्तुति प्रार्थना उपासना करनेवाले पापरहित आत्मा के लिए वेदज्ञान का उपदेश देता है और साधारण जनों के लिए सामान्य वाणी देता है।  अज्ञानी दुष्ट मनुष्य की सम्पत्ति, शक्ति को नष्ट कर देता है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभु रोध हैं- वक्ष हैं

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि (अहम्) = मैं (इन्द्रः) = सब असुरों का संहार करनेवाला हूँ । प्रभु हमारे हृदय में आसीन होते हैं, तो वहाँ आसुर वृत्तियों का उदय नहीं होता। परमात्मा कामदेव आसुर वृत्तियों [२] इस प्रकार को भस्म करके ये प्रभु (रोधः) = हमारे शरीर में सोम [वीर्य] शक्ति का निरोध करनेवाले हैं। वासना ही तो सोम की नाशक थी। [२] मैं (अथर्वणः) = [अ-थर्व] स्थिर बुद्धिवाले पुरुष या जिसकी बुद्धि वासनाओं से आन्दोलित नहीं होती उस [अथ अर्वाङ्] आत्मालोचन करनेवाले पुरुष की (वक्षः) = [ wax] उन्नति करनेवाला हूँ, बढ़ानेवाला हूँ। [३] मैं ही (त्रताय) = काम-क्रोध-लोभ से तैरनेवाले अथवा 'धर्मार्थ काम' तीन पुरुषार्थों का समान रूप से विस्तार करनेवाले पुरुष के लिये (अहेः) = [आहन्ति] इन्द्रियों पर आक्रमण करनेवाले वृत्र से छुड़ाकर (गाः) = इन्द्रियों को (अधि अजनयम्) = आधिक्येन विकसित शक्तिवाला करता हूँ। वासना ने ही इन्द्रियों को जीर्ण शक्ति किया हुआ था । यह वासना ही यहाँ ' अहि' कही गयी है। इससे मुक्त करके प्रभु हमारी इन्द्रियों को अजीर्ण शक्तिवाला करते हैं । [४] संसार में जो लोग वासना के वशीभूत होकर औरों को विनष्ट करके धनार्जन करते हैं, उन (दस्युभ्यः) = दस्युओं से (अहम्) = मैं [प्रभु] (नृम्णम्) = धन को परि (आददे) = छीन लेता हूँ। थोड़ी देर तक फल-फूलकर ये दस्यु लोग समूल विनष्ट हो जाते हैं । [५] प्रभु कहते हैं कि मैं ही (गोत्राः) = ज्ञान की वाणियों को (शिक्षन्) = सिखाता हूँ । उसे सिखाता हूँ जो कि (दधीचे) = [ध्यानं प्रत्यक्तः ] ध्यानशील है तथा (मातरिश्वने) = [मातरिश्वा = वायु-प्राण] प्राणसाधना करनेवाला है अथवा [मातरि, श्वि] वेदमाता में गति व वृद्धिवाला है। ज्ञान - रुचि ध्यानी पुरुष को प्रभु ही ज्ञान की वाणियों का शिक्षण करते हैं । इनके शिक्षण से दास्यव वृत्ति का समूलोन्मूलन हो जाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु हमारी वासनाओं को नष्ट करके हमें अजीर्ण शक्तिवाला करते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्-इन्द्रः) अहमैश्वर्यवान् परमात्मा (अथर्वणः) अविचलितस्य योगिनः “अथर्वा……थर्वति गतिकर्मा तत्प्रतिषेघः” [निरु० ११।१९] “अहिंसकस्य विदुषः” [यजु० ११।३३ दयानन्दः] (वक्षः-रोधः) भासः-ज्ञानप्रकाशकस्य, “वक्षो भासः” [निरु० ४।१६] रोधयिता-अज्ञानान्निवारयिताऽस्मि (त्रिताय-अहेः-गाः अधि-अजनयम्) स्तुतिप्रार्थनोपासनास्तनोति यः स त्रितस्तस्मै-आध्यात्मिकजनाय, अहेः पापहन्त्रे जनाय “चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।३।६२] ‘इति चतुर्थ्यर्थे षष्ठी’ “अहिः-निर्ह्रसितोपसर्गः-आहन्ता” [निरु० २।१७] ज्ञानवाचः “गौ-वाङ्नाम” [निघ० १।११] जनयामि-प्रादुर्भावयामि (अहम्) अहं परमात्मा (दस्युभ्यः-नृम्णं परि-आ ददे) अन्येषां क्षयकारकेभ्यस्तत्सकाशाद्धनं पूर्णतो गृह्वामि (मातरिश्वने दधीचे गोत्रा शिक्षन्) मातरि मातुर्गर्भे गच्छते गमनशीलाय ध्यानिने जीवाय सामान्यवाचः प्रयच्छामि ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - I am the corselet and the centre-hold of pranic energy in the state of tension and equilibrium. I create the streams of vapour over the cloud and waves of energy for the three realms of earth, heaven and the middle regions. I collect and disburse wealth of materials and energies from and for the dynamics of evolution, and I give protection and perception of sense and response to the foetus in the mother’s womb.