पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि (अहम्) = मैं (इन्द्रः) = सब असुरों का संहार करनेवाला हूँ । प्रभु हमारे हृदय में आसीन होते हैं, तो वहाँ आसुर वृत्तियों का उदय नहीं होता। परमात्मा कामदेव आसुर वृत्तियों [२] इस प्रकार को भस्म करके ये प्रभु (रोधः) = हमारे शरीर में सोम [वीर्य] शक्ति का निरोध करनेवाले हैं। वासना ही तो सोम की नाशक थी। [२] मैं (अथर्वणः) = [अ-थर्व] स्थिर बुद्धिवाले पुरुष या जिसकी बुद्धि वासनाओं से आन्दोलित नहीं होती उस [अथ अर्वाङ्] आत्मालोचन करनेवाले पुरुष की (वक्षः) = [ wax] उन्नति करनेवाला हूँ, बढ़ानेवाला हूँ। [३] मैं ही (त्रताय) = काम-क्रोध-लोभ से तैरनेवाले अथवा 'धर्मार्थ काम' तीन पुरुषार्थों का समान रूप से विस्तार करनेवाले पुरुष के लिये (अहेः) = [आहन्ति] इन्द्रियों पर आक्रमण करनेवाले वृत्र से छुड़ाकर (गाः) = इन्द्रियों को (अधि अजनयम्) = आधिक्येन विकसित शक्तिवाला करता हूँ। वासना ने ही इन्द्रियों को जीर्ण शक्ति किया हुआ था । यह वासना ही यहाँ ' अहि' कही गयी है। इससे मुक्त करके प्रभु हमारी इन्द्रियों को अजीर्ण शक्तिवाला करते हैं । [४] संसार में जो लोग वासना के वशीभूत होकर औरों को विनष्ट करके धनार्जन करते हैं, उन (दस्युभ्यः) = दस्युओं से (अहम्) = मैं [प्रभु] (नृम्णम्) = धन को परि (आददे) = छीन लेता हूँ। थोड़ी देर तक फल-फूलकर ये दस्यु लोग समूल विनष्ट हो जाते हैं । [५] प्रभु कहते हैं कि मैं ही (गोत्राः) = ज्ञान की वाणियों को (शिक्षन्) = सिखाता हूँ । उसे सिखाता हूँ जो कि (दधीचे) = [ध्यानं प्रत्यक्तः ] ध्यानशील है तथा (मातरिश्वने) = [मातरिश्वा = वायु-प्राण] प्राणसाधना करनेवाला है अथवा [मातरि, श्वि] वेदमाता में गति व वृद्धिवाला है। ज्ञान - रुचि ध्यानी पुरुष को प्रभु ही ज्ञान की वाणियों का शिक्षण करते हैं । इनके शिक्षण से दास्यव वृत्ति का समूलोन्मूलन हो जाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु हमारी वासनाओं को नष्ट करके हमें अजीर्ण शक्तिवाला करते हैं ।