पदार्थान्वयभाषाः - [१] (देवानां देवः) = देवों का देव, देवाधिदेव प्रभु (आदित्यानाम्) = सब वेदों के विद्वान् आदित्य ब्रह्मचारियों के (वसूनाम्) = विज्ञानवेद के अध्ययन से उत्तम निवासवाले ब्रह्मचारियों के तथा (रुद्रियाणाम्) = ज्ञान प्राप्ति के द्वारा कामादि शत्रुओं के लिये भयंकर रुद्र ब्रह्मचारियों के धाम तेज को (न मिनाति) = नष्ट नहीं करता। [२] प्रभु कहते हैं कि (ते) = वे 'आदित्य, वसु व रुद्र' (मा) = मुझे (भद्राय शवसे) = कल्याणकर शक्ति के लिये ततक्षुः- अपने अन्दर निर्मित करते हैं । जो मैं (अपराजितम्) = अपराजित हूँ (अस्तृतम्) = अहिंसित हूँ तथा (अषाढम्) = कामादि से अनभिभूत हूँ । अपने हृदयों में मेरा निर्माण करते हुए, अर्थात् मुझे स्थापित करते हुए ये लोग 'भद्र शवस्' को प्राप्त करते हैं, ये शक्तिशाली होते हैं [शवस् ] परन्तु शक्ति का प्रयोग ये सदा दूसरों के कल्याण के लिये ही करते हैं। ये भी मेरी तरह 'अपराजित, अस्तृत व अषाढ' बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम हृदयों में प्रभु को स्थापित करें, जिससे हम 'अपराजित अहिंसित व वासनाओं से न दबे हुए' हो पायें। सूक्त के प्रारम्भ में कहते हैं कि प्रभु ही धनपति हैं, [१] प्रभु ही हमें, वासनाओं को नष्ट करके, अजीर्ण शक्तिवाला बनाते हैं, [२] प्रभु का पूजन कर्मों से ही होता है, [३] प्रभु-पूजन हमें पशु से देव बना देता है, [४] हम प्रभु मित्र बनें, नकि धन मित्र, [५] प्रभु स्मरण से कामादि शत्रुओं की प्रबलता समाप्त हो जाती है, [६] प्रभु भक्त बनकर मैं कामादि को जीत लेता हूँ, [७] हम क्रियाशील हों और प्रभु उपासकों के संग में रहें, [८] हम प्रभु के प्रति नमन व प्रभु का आश्रयण करनेवाले हों, [९] जिनमें प्रभु स्थित होते हैं, वे आविर्भूत शक्तिवाले होते हैं, [१०] हम भी प्रभु की तरह 'अपराजित, अहिंसित व वासनाओं से अनभिभूत' होंगे, [११] प्रभु ही भक्तों को धन देते हैं-