पदार्थान्वयभाषाः - [१] (उशिजः) = मेधावी, प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाले लोग, (नमोभिः) = नमस्कार व नम्रता के द्वारा (अकृण्वन्) = प्रभु को प्रसन्न करते हैं अथवा प्रभु को अपना बनाते हैं । ये मेधावी लोग प्रभु को तभी अपना पाते हैं जब ये (मानुषेषु दधतः) = मनुष्यों में अपने को स्थापित करते हैं। मानवहित के लिये अपने को अर्पित करनेवाले लोग ही प्रभु के सच्चे भक्त होते हैं और प्रभु प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं। [२] उस प्रभु को पाते हैं जो कि (मन्द्रम्) = आनन्दस्वरूप हैं तथा भक्तों को आनन्दित करनेवाले हैं। (होतारम्) = सब कुछ देनेवाले हैं । सब आवश्यक वस्तुएं प्राप्त कराके ही तो वे हमारे जीवनों को आनन्दित करते हैं । (प्राञ्चम्) = [ प्र अञ्च] सब आवश्यक साधन प्राप्त कराके वे हमें आगे ले चलनेवाले हैं । (यज्ञम्) = पूजनीय हैं, संगतिकरण योग्य हैं तथा अर्पणीय हैं, प्रभु के प्रति अपना अर्पण करके ही मनुष्य अपने कल्याण को सिद्ध करता है। विशां अध्वराणां नेतारम्-प्रजाओं के सब हिंसारहित यज्ञात्मक श्रेष्ठ कर्मों का वे प्रणयन करनेवाले हैं, प्रभु कृपा से ही सब यज्ञ पूर्ण हुआ करते हैं । (अरतिम्) = वे कहीं भी रति व रागवाले नहीं है। (पावकम्) = अपने भक्तों के जीवनों को पवित्र करनेवाले हैं। (हव्यवाहम्) = सब हव्य पदार्थों के वे प्राप्त करानेवाले हैं। हमें कर्मानुसार सब उत्तम वस्तुओं के देनेवाले हैं। इस प्रभु को मेधावी पुरुष मानवहित में लगकर नम्रतापूर्वक चलते हुए धारण करते हैं। प्रभु भक्त बनने के लिये 'सर्वभूतहितेरत' होना आवश्यक है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम 'उशिक्' बनकर, मानवहित के कर्मों में अपने को स्थापित करते हुए, प्रभु को प्रसन्न करनेवाले होते हैं।