तत्त्वद्रष्टा का श्रीसम्पन्न जीवन
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार अपने जीवन को ज्ञानदीप्ति से दीप्त करने के कारण यह (दृशान:) = प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को देखनेवाला बनता है । वस्तुओं की आपात रमणीयता से उनमें उलझ नहीं जाता। न उलझने के कारण यह (रुक्मः) = स्वर्ण के समान चमकनेवाला होता है, स्वास्थ्य की दीप्ति से दीप्त होता है। शारीरिक स्वास्थ्य के साथ उर्विया हृदय की विशालता से यह (व्यद्यौत्) = चमकता है। इसका हृदय संकुचित नहीं होता, हृदय को विशाल बनाकर यह समाज में शोभा ही पाता है। (आयुः) = इसका जीवन (दुर्मर्षम्) = शत्रुओं से मर्षण के योग्य नहीं होता, यह शत्रुओं के लिये दुराधर्ष होता है । काम-क्रोधादि के आक्रमण से यह आक्रान्त नहीं होता । (श्रिये रुचानः) = श्री के लिये यह रुचिवाला होता है, किसी भी कार्य को यह अशोभा से नहीं करना चाहता । इस श्री के लिये यह 'सत्य' को अपनाता है, सत्कार्यों से इसका 'यश' होता है, यह यश इसे श्री सम्पन्न जीवनवाला करता है। [२] (अग्निः) = यह जीवनपथ में निरन्तर आगे बढ़ता है । (वयोभिः) = आयुष्य के स्थापक सात्त्विक अन्नों से यह (अमृतः) = रोगों से अनाक्रान्त स्वस्थ दीर्घ- जीवनवाला (अभवत्) = होता है । [३] यह इस प्रकार बन इसलिए पाता है (यत्) = क्योंकि (सुरेता:) = उत्तम रेतस्वाला, ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला (द्यौः) = ज्ञान- ज्योति से प्रकाशमय जीवनवाला आचार्य (एनम्) = इसको (जनयत्) = विकसित शक्तिवाला करता है। संयमी ज्ञानी आचार्य के नियन्त्रण में रहकर इसकी भी शक्तियों व ज्ञान का विकास समुचित रूप में हो जाता है और इसका जीवन सचमुच श्री सम्पन्न होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-संयमी ज्ञानी आचार्यों की कृपा से हमारा जीवन श्री सम्पन्न बने। हम तत्त्वद्रष्टा बनकर संसार में उलझे नहीं ।