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दृ॒शा॒नो रु॒क्म उ॑र्वि॒या व्य॑द्यौद्दु॒र्मर्ष॒मायु॑: श्रि॒ये रु॑चा॒नः । अ॒ग्निर॒मृतो॑ अभव॒द्वयो॑भि॒र्यदे॑नं॒ द्यौर्ज॒नय॑त्सु॒रेता॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dṛśāno rukma urviyā vy adyaud durmarṣam āyuḥ śriye rucānaḥ | agnir amṛto abhavad vayobhir yad enaṁ dyaur janayat suretāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दृ॒शा॒नः । रु॒क्मः । उ॒र्वि॒या । वि । अ॒द्यौ॒त् । दुः॒ऽमर्ष॑म् । आयुः॑ । श्रि॒ये । रु॒चा॒नः । अ॒ग्निः । अ॒मृतः॑ । अ॒भ॒व॒त् । वयः॑ऽभिः । यत् । ए॒न॒म् । द्यौः । ज॒नय॑त् । सु॒ऽरेताः॑ ॥ १०.४५.८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:45» मन्त्र:8 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:29» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अमृतः-अग्निः-अभवत्) यह अमर-मरणधर्मरहित परमात्मा सर्वत्र स्वामिरूप में विराजता है (दृशानः) द्रष्टा (रुक्मः) रोचमान (उर्विया व्यद्यौत्) महती दीप्ति से विशिष्टरूप से प्रकाशित है-प्रकाश करता है (दुर्मर्षम्-आयुः श्रिये रुचानः) आश्रय लेनेवाले उपासक के लिए अबाध्य ज्ञान को प्रकाशित करता हुआ-प्रकट करता हुआ (सुरेताः-द्यौः-वयोभिः-यत्-एनं जनयत्) सम्यक् उत्पादक शक्तिवाले पिता की भाँति तेजो वीर्यवान् प्राणों के द्वारा इस उपासक को सम्पन्न करता है ॥८॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सर्वत्र एकरस विराजमान है। अबाध्य ज्ञान को विशेषरूप से अपने आश्रयी उपासक के लिए देता है और उत्तम प्राणों से समृद्ध करता है ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

तत्त्वद्रष्टा का श्रीसम्पन्न जीवन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार अपने जीवन को ज्ञानदीप्ति से दीप्त करने के कारण यह (दृशान:) = प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को देखनेवाला बनता है । वस्तुओं की आपात रमणीयता से उनमें उलझ नहीं जाता। न उलझने के कारण यह (रुक्मः) = स्वर्ण के समान चमकनेवाला होता है, स्वास्थ्य की दीप्ति से दीप्त होता है। शारीरिक स्वास्थ्य के साथ उर्विया हृदय की विशालता से यह (व्यद्यौत्) = चमकता है। इसका हृदय संकुचित नहीं होता, हृदय को विशाल बनाकर यह समाज में शोभा ही पाता है। (आयुः) = इसका जीवन (दुर्मर्षम्) = शत्रुओं से मर्षण के योग्य नहीं होता, यह शत्रुओं के लिये दुराधर्ष होता है । काम-क्रोधादि के आक्रमण से यह आक्रान्त नहीं होता । (श्रिये रुचानः) = श्री के लिये यह रुचिवाला होता है, किसी भी कार्य को यह अशोभा से नहीं करना चाहता । इस श्री के लिये यह 'सत्य' को अपनाता है, सत्कार्यों से इसका 'यश' होता है, यह यश इसे श्री सम्पन्न जीवनवाला करता है। [२] (अग्निः) = यह जीवनपथ में निरन्तर आगे बढ़ता है । (वयोभिः) = आयुष्य के स्थापक सात्त्विक अन्नों से यह (अमृतः) = रोगों से अनाक्रान्त स्वस्थ दीर्घ- जीवनवाला (अभवत्) = होता है । [३] यह इस प्रकार बन इसलिए पाता है (यत्) = क्योंकि (सुरेता:) = उत्तम रेतस्वाला, ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला (द्यौः) = ज्ञान- ज्योति से प्रकाशमय जीवनवाला आचार्य (एनम्) = इसको (जनयत्) = विकसित शक्तिवाला करता है। संयमी ज्ञानी आचार्य के नियन्त्रण में रहकर इसकी भी शक्तियों व ज्ञान का विकास समुचित रूप में हो जाता है और इसका जीवन सचमुच श्री सम्पन्न होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-संयमी ज्ञानी आचार्यों की कृपा से हमारा जीवन श्री सम्पन्न बने। हम तत्त्वद्रष्टा बनकर संसार में उलझे नहीं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अमृतः-अग्निः-अभवत्) एषोऽमरो मरणधर्मरहितः परमात्माग्निः सर्वत्र विराजते (दृशानः) द्रष्टा (रुक्मः) रोचमानः (उर्विया व्यद्यौत्) महत्या दीप्त्या विशिष्टतया प्रकाशते (दुर्मर्षम्-आयुः श्रिये रुचानः) आश्रयति यस्तस्मै-आश्रयप्राप्तये खलूपासकाय “श्रिञ् धातोः क्विप्” [उणा० २।५७] अबाध्यमापुः प्रकाशयन् प्रकटयन् (सुरेताः-द्यौः-वयोभिः-एत् एनं जनयत्) सोऽग्निः परमात्मा सम्यगुत्पादकशक्तिमान् पितेव तेजोवीर्यवान् प्राणैः “प्राणो वै वयः” [ऐ० १।२८] यतः एनमुपासकं जनयति ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - All watching and self-revealed, glorious Agni shines awfully, infinite light, indomitable life and pranic energy, all refulgent for the beauty and grace of life.$Agni is immortal and eternal with waves of living energy since the heavenly divine life spirit of existence generates it as it is.