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उज्जा॑यतां पर॒शुर्ज्योति॑षा स॒ह भू॒या ऋ॒तस्य॑ सु॒दुघा॑ पुराण॒वत् । वि रो॑चतामरु॒षो भा॒नुना॒ शुचि॒: स्व१॒॑र्ण शु॒क्रं शु॑शुचीत॒ सत्प॑तिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uj jāyatām paraśur jyotiṣā saha bhūyā ṛtasya sudughā purāṇavat | vi rocatām aruṣo bhānunā śuciḥ svar ṇa śukraṁ śuśucīta satpatiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत् । जा॒य॒ता॒म् । प॒र॒शुः । ज्योति॑षा । स॒ह । भू॒याः । ऋ॒तस्य॑ । सु॒ऽदुघा॑ । पु॒रा॒ण॒ऽवत् । वि । रो॒च॒ता॒म् । अ॒रु॒षः । भा॒नुना॑ । शुचिः॑ । स्वः॒ । ण । शु॒क्रम् । शु॒शु॒ची॒त॒ । सत्ऽप॑तिः ॥ १०.४३.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:43» मन्त्र:9 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य) अमृतरूप परमात्मा का (परशुः) उपासक के शत्रुओं को हिंसित करनेवाला गुण (ज्योतिषा सह) अपने तेज के साथ है (सुदुघा पुराणवत्) सुदोहन-सुखदोहनवाली कृपा पूर्ववत् (भूयाः) होवे (अरुषः-भानुना रोचताम्) सब ओर से प्रकाशमान परमात्मा अपने प्रकाश से हमारे अन्दर प्रकाशित हो (सत्पतिः-स्वः-न शुचिः-शुक्रं शुशुचीत) वह सत्पुरुषों का पालक सूर्य के समान अपने शुभ्र तेज को बहुत प्रकाशित करे ॥९॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अपने उपासकों के कामादि शत्रुओं को अपने तेज से नष्ट करता है। दूध देनेवाली गौ की भाँति उसकी कृपा अमृतपान कराती है और वह हमारे अन्दर अपने तेजस्वरूप का दर्शन भी कराता है ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

[कैसा बनें ?] = सत्पति:

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार सोम का रक्षण करके यह पुरुष (ज्योतिषा सह) = ज्ञान की ज्योति के साथ (परशुः) = वासना वृक्ष के लिये कुठर के समान (उज्जायताम्) = हो जाए । इस पुरुष में ज्योति हो और वासना को नष्ट करके यह शक्तिशाली हो । [२] यह (प्रराणवत्) = अपने कुल में पूर्व पुरुषों की तरह (ऋतस्य) = ऋत का (सुदुघा) = उत्तम दोहन करनेवाला (भूयाः) = हो । 'ऋत' वेदवाणी है, जो सत्यज्ञान की प्रकाशिका है, उस ऋत का यह अपने में पूरण करनेवाला बने [दुह् प्रपूरणे] । यह बात कुलधर्म के रूप में इसके कुल में चलती चले। [३] इस प्रकार इस सत्य ज्ञान की वाणी का दोहन करते हुए यह (विरोचताम्) = विशेषरूप से चमके। (अ-रुषः) = क्रोध से तमतमानेवाला न हो । (भानुना शुचिः) = ज्ञान की दीप्ति के द्वारा यह पवित्र हो । (स्वः न) = उस देदीप्यमान सूर्य की तरह (शुक्रम्) = दीप्ति से (शुशुचीत्) = चमके और यह (सत्पतिः) = उत्तम कर्मों को उत्तम भावनाओं से और उत्तम प्रकार से करनेवाला हो कर्म भी उत्तम हो, भावना भी उत्तम हो और उस कर्म को करने का तरीका भी उत्तम हो। इस प्रकार इन तीनों के सत् होने पर यह 'सत्पति' कहाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-वासनाओं को विनष्ट करने की शक्ति व ज्ञान को हम अपनाएँ, वेदज्ञान का दोहन करें, ज्ञान से दीप्त हों और सत्कर्मों को करनेवाले हों ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य) अमृतरूपस्य परमात्मनः “ऋतममृतमित्याह” [जै० २।१६०] (परशुः) उपासकस्य परान् शत्रून् शृणाति हिनस्ति येन सः “आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च-उः” [उणादि० १।३३] (ज्योतिषा सह) स्वतेजसा सहास्ति (सुदुघा पुराणवत्) सुदोहनरूपा सुखदोग्ध्री पूर्ववत्-शाश्वतिकी (भूयाः) भूयात् “पुरुष-व्यत्ययः” (अरुषः-भानुना रोचताम्) समन्तात् प्रकाशमानः स परमात्मा स्वेन प्रकाशेनास्मासु प्रकाशताम् (सत्पतिः स्वः न शुचिः शुक्रं शुशुचीत) स सतां पालकः सूर्य इव शुभ्रं तेजो भृशं प्रकाशयेत् ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Let the thunderbolt of power and justice arise, let the voice of truth and law divine be generous, creative and fruitful as ever before, let the bright sun rise with its immaculate light and glory, may the lord protector and promoter of the good reveal the light and power of divinity as the bliss of heaven.