पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार सोम का रक्षण करके यह पुरुष (ज्योतिषा सह) = ज्ञान की ज्योति के साथ (परशुः) = वासना वृक्ष के लिये कुठर के समान (उज्जायताम्) = हो जाए । इस पुरुष में ज्योति हो और वासना को नष्ट करके यह शक्तिशाली हो । [२] यह (प्रराणवत्) = अपने कुल में पूर्व पुरुषों की तरह (ऋतस्य) = ऋत का (सुदुघा) = उत्तम दोहन करनेवाला (भूयाः) = हो । 'ऋत' वेदवाणी है, जो सत्यज्ञान की प्रकाशिका है, उस ऋत का यह अपने में पूरण करनेवाला बने [दुह् प्रपूरणे] । यह बात कुलधर्म के रूप में इसके कुल में चलती चले। [३] इस प्रकार इस सत्य ज्ञान की वाणी का दोहन करते हुए यह (विरोचताम्) = विशेषरूप से चमके। (अ-रुषः) = क्रोध से तमतमानेवाला न हो । (भानुना शुचिः) = ज्ञान की दीप्ति के द्वारा यह पवित्र हो । (स्वः न) = उस देदीप्यमान सूर्य की तरह (शुक्रम्) = दीप्ति से (शुशुचीत्) = चमके और यह (सत्पतिः) = उत्तम कर्मों को उत्तम भावनाओं से और उत्तम प्रकार से करनेवाला हो कर्म भी उत्तम हो, भावना भी उत्तम हो और उस कर्म को करने का तरीका भी उत्तम हो। इस प्रकार इन तीनों के सत् होने पर यह 'सत्पति' कहाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-वासनाओं को विनष्ट करने की शक्ति व ज्ञान को हम अपनाएँ, वेदज्ञान का दोहन करें, ज्ञान से दीप्त हों और सत्कर्मों को करनेवाले हों ।