'सुन्वत्- जीरदानु- मनु- हविष्मान् '
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो भी पुरुष (इमाः अपः) = इन सोमकणों का (अर्य- पत्नी: अकृणोत्) = जितेन्द्रिय- स्वामी - पुरुष की पत्नी के रूप में बनाता है, वह (क्रुद्धः वृषा न) = एक क्रुद्ध शक्तिशाली वृषभ की तरह (रजः सु) = इन लोकों में, अथवा हृदयान्तरिक्ष में (आपतयत्) = समन्तात् शत्रुओं का नाश करता है । 'आप: रेतो भूत्वा' इस वाक्य के अनुसार 'आपः ' यहाँ रेतः कणों का वाचक है । ये रेतः कण जितेन्द्रिय पुरुष में सुरक्षित होते हैं और उसका पालन करते हैं । पत्नी जैसे पति की पूरक होती है, उसी प्रकार ये रेतःकण पुरुष के पूरक होते हैं, उसकी न्यूनताओं को दूर करते हैं । इन सोमकणों से शक्तिशाली बनकर यह वासनाओं को इस प्रकार नष्ट कर देता है जैसे क्रुद्ध वृषा विरोधी को नष्ट करनेवाला होता है। [२] ऐसा होने पर (स मघवा) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (सुन्वते) = इस सोम सम्पादन करनेवाले पुरुष के लिये, (जीरदानवे) = [जीरं - क्षिप्रं दाप् लवने] शीघ्रता से शत्रुओं का लवना करनेवाले के लिये, (मनवे) = विचारशील व (हविष्मते) = हविवाले के लिये, सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले के लिये (ज्योतिः अविन्दत्) = प्रकाश को प्राप्त कराते हैं। 'सुन्वन्- जीरदानु- मनु व हविष्मान्' को ही ज्योति प्राप्त होती है । इन सब बातों का मूल यही है कि हम जितेन्द्रिय बनकर सोमकणों को अपना पूरक बनाएँ। इन सोमकणों के रक्षण से शरीर के रोगों व मन की मलिनताओं को दूर करने का प्रयत्न करें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम जितेन्द्रिय बनें, सोमरक्षण के द्वारा न्यूनताओं को दूर करें, सोम का सम्पादन व वासनाओं का विलयन करते हुए ज्योति को प्राप्त करें ।