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वृषा॒ न क्रु॒द्धः प॑तय॒द्रज॒स्स्वा यो अ॒र्यप॑त्नी॒रकृ॑णोदि॒मा अ॒पः । स सु॑न्व॒ते म॒घवा॑ जी॒रदा॑न॒वेऽवि॑न्द॒ज्ज्योति॒र्मन॑वे ह॒विष्म॑ते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vṛṣā na kruddhaḥ patayad rajassv ā yo aryapatnīr akṛṇod imā apaḥ | sa sunvate maghavā jīradānave vindaj jyotir manave haviṣmate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृषा॑ । न । क्रु॒द्धः । प॒त॒य॒त् । रजः॑ऽसु । आ । यः । अ॒र्यऽप॑त्नीः । अकृ॑णोत् । इ॒माः । अ॒पः । सः । सु॒न्व॒ते । म॒घऽवा॑ । जी॒रऽदा॑नवे । अवि॑न्दत् । ज्योतिः॑ । मन॑वे । ह॒विष्म॑ते ॥ १०.४३.८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:43» मन्त्र:8 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (क्रुद्धः-वृषा न रजःसु पतयत्) बल से बढ़ा हुआ वृषभ जैसे धूलिकणों में गिरता है-बल से धूलि को कुरेदता है, उसी भाँति (यः-इमाः-अपः-अर्यपत्नीः-आ अकृणोत्) जो इन प्रापणशील उपासक आप्तजनों को, अपनी पालन करने योग्य प्रजाओं को स्वीकार करता है-अपनाता है, उनके विरोधी कामादि शत्रुओं पर प्रहार करता है (सः-मघवा) वह ऐश्वर्यवान् परमात्मा (हविष्मते) आत्मवान् (मनवे) मननशील (सुन्वते) उपासनारस निष्पादन करनेवाले (जीरदानवे) जीवनदाता के लिए (ज्योतिः-अविन्दत्) स्वज्योति-अपने स्वरूप को प्राप्त करता है ॥८॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अपने उपासकों को अपनाता है, उनके अन्दर से उनके कामादि शत्रुओं को ऐसे उखाड़ फेंकता है, जैसे बलवान् वृषभ पृथिवीस्तर से धूलिकणों को उखाड़ फेंकता है। उसका स्वभाव है कि आत्मसमर्पी उपासनारस सम्पादन करनेवाले, अन्यों को जीवन देनेवाले के लिए अपनी ज्योति-अपने स्वरूप को प्राप्त कराता है ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'सुन्वत्- जीरदानु- मनु- हविष्मान् '

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो भी पुरुष (इमाः अपः) = इन सोमकणों का (अर्य- पत्नी: अकृणोत्) = जितेन्द्रिय- स्वामी - पुरुष की पत्नी के रूप में बनाता है, वह (क्रुद्धः वृषा न) = एक क्रुद्ध शक्तिशाली वृषभ की तरह (रजः सु) = इन लोकों में, अथवा हृदयान्तरिक्ष में (आपतयत्) = समन्तात् शत्रुओं का नाश करता है । 'आप: रेतो भूत्वा' इस वाक्य के अनुसार 'आपः ' यहाँ रेतः कणों का वाचक है । ये रेतः कण जितेन्द्रिय पुरुष में सुरक्षित होते हैं और उसका पालन करते हैं । पत्नी जैसे पति की पूरक होती है, उसी प्रकार ये रेतःकण पुरुष के पूरक होते हैं, उसकी न्यूनताओं को दूर करते हैं । इन सोमकणों से शक्तिशाली बनकर यह वासनाओं को इस प्रकार नष्ट कर देता है जैसे क्रुद्ध वृषा विरोधी को नष्ट करनेवाला होता है। [२] ऐसा होने पर (स मघवा) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (सुन्वते) = इस सोम सम्पादन करनेवाले पुरुष के लिये, (जीरदानवे) = [जीरं - क्षिप्रं दाप् लवने] शीघ्रता से शत्रुओं का लवना करनेवाले के लिये, (मनवे) = विचारशील व (हविष्मते) = हविवाले के लिये, सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले के लिये (ज्योतिः अविन्दत्) = प्रकाश को प्राप्त कराते हैं। 'सुन्वन्- जीरदानु- मनु व हविष्मान्' को ही ज्योति प्राप्त होती है । इन सब बातों का मूल यही है कि हम जितेन्द्रिय बनकर सोमकणों को अपना पूरक बनाएँ। इन सोमकणों के रक्षण से शरीर के रोगों व मन की मलिनताओं को दूर करने का प्रयत्न करें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम जितेन्द्रिय बनें, सोमरक्षण के द्वारा न्यूनताओं को दूर करें, सोम का सम्पादन व वासनाओं का विलयन करते हुए ज्योति को प्राप्त करें ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (क्रुद्धः-वृषा न रजःसु पतयत्) बलेन संवृद्धो वृषभो यथा धूलिषु मृत्कणेषु पतति, तद्वत् (यः-इमाः अपः अर्यपत्नीः आकृणोत्) य आप्तान् मनुष्यान् प्रापण-शीलानुपासकान् “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२०] अर्यस्य स्वस्य पालयितव्याः प्रजाः स्वीकरोति तस्मात्तद्विरोधिकामादिशत्रुषु पतति ताडयति, अत एव (सः मघवा) स ऐश्वर्यवान् परमात्मा (हविष्मते) आत्मवते “आत्मा वै हविः” [काठ० ८।५] (मनवे) मननकर्त्रे (सुन्वते) उपासनारसं निष्पादयते (जीरदानवे) जीवनदात्रे (ज्योतिः अविन्दत्) स्वज्योतिःस्वरूपं प्रापयति ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Just as the swelling cloud causes the vapours of water in the skies to be released of itself and lets these showers of rain fall upon the earth, so does Indra, lord of glorious generosity, bring showers of light and bliss for the generous man of charity who offers the homage of soma to the lord for humanity.