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यस्मि॑न्व॒यं द॑धि॒मा शंस॒मिन्द्रे॒ यः शि॒श्राय॑ म॒घवा॒ काम॑म॒स्मे । आ॒राच्चि॒त्सन्भ॑यतामस्य॒ शत्रु॒र्न्य॑स्मै द्यु॒म्ना जन्या॑ नमन्ताम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasmin vayaṁ dadhimā śaṁsam indre yaḥ śiśrāya maghavā kāmam asme | ārāc cit san bhayatām asya śatrur ny asmai dyumnā janyā namantām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्मि॑न् । व॒यम् । द॒धि॒म । शंस॑म् । इन्द्रे॑ । यः । शि॒श्राय॑ । म॒घऽवा॑ । काम॑म् । अ॒स्मे इति॑ । आ॒रात् । चि॒त् । सन् । भ॒य॒ता॒म् । अ॒स्य॒ । शत्रुः॑ । नि । अ॒स्मै॒ । द्यु॒म्ना । जन्या॑ । न॒म॒न्ता॒म् ॥ १०.४२.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:42» मन्त्र:6 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वयं यस्मिन्-इन्द्रे) हम जिस राजा में-जिस राजा के निमित्त (शंसं दधिम) प्रशंसा धारण करते हैं (यः-मघवा) जो धनवान् राजा (अस्मे कामं शिश्राय) हमारे में-हमारे निमित्त कमनीय वस्तु को देता है, तथा (यस्य शत्रुः) जिसका विरोधी (आरात्-चित् सन् भयताम्) दूर से ही भय करता है (अस्मै) इस राजा के लिए (जन्या द्युम्ना निनमन्ताम्) उस देश में उत्पन्न होनेवाली अन्न आदि भोगवस्तुएँ समर्पित हो जाती हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - वह राजा प्रशंसा के योग्य है जो अपनी प्रजा के लिये आवश्यक निर्वाह की वस्तुओं का प्रबन्ध करता है तथा विरोधी शत्रु आदि जिससे दूर से ही भय खाते हैं, वह राष्ट्र की भोगसम्पत्ति का अधिकारी है ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

जन्य द्युम्न

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यस्मिन् इन्द्रे) = जिस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (वयम्) = हम (शंसं दधिम) = स्तुति को धारण करते हैं और (यः मघवा) = जो ऐश्वर्यशाली प्रभु (अस्मे) = हमारे में (कामम्) = काम को (शिश्राय) = [श्रयति= to use, employ] हमारी उन्नति के लिये विनियुक्त करते हैं 'काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिक: 'इस काम के द्वारा ही तो हमने वेद का स्वाध्याय करना है और इसी के द्वारा सारा वेद प्रतिपादित कर्मयोग क्रियान्वित होना है, सो (अस्य शत्रुः) = इस पुरुष का नाश करनेवाला यह काम (आराच्चित्) = दूर (चित्) = भी (सन्) = होता हुआ (भयताम्) = डरता ही रहे। इसके पास फटकने का तो इसे स्वप्न भी न हो और अब (अस्मै) = इस प्रभु के स्तोता के लिये जन्या मनुष्य का हित साधनेवाले (द्युम्ना) = [द्युम्न-धन नि० २।१०] धन (नि नमन्ताम्) = निश्चय से प्रह्वीभूत हों। इसे इन जन्य धनों की प्राप्ति हो । [२] [क] जब हम प्रभु का स्तवन करते हैं तो इसका (सर्वमहान्) = लाभ यह होता है कि हमारे जीवनों में काम शत्रु न बनकर मित्र की तरह कार्य करता है, प्रभु इस काम को हमारी =उन्नति के लिये विनियुक्त करते हैं । [ख] ऐसा होने पर शत्रुभूत काम हमारे पास भी नहीं फटकता, [ग] हम पुरुषार्थ करते हुए उन धनों को प्राप्त करते हैं जो जनहित के साधक होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु के स्तवन से काम हमारा शत्रु न रहकर मित्र हो जाए। हम लोकहित साधक धनों को प्राप्त करें ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्रशब्देन राजा कथ्यते (वयं यस्मिन्-इन्द्रे शंसं दधिम) वयं खलु यस्मिन् राजनि-यद्राजनिमित्तं प्रशंसनं धारयामः (यः मघवा-अस्मे कामं शिश्राय) यो हि धनवान् राजाऽस्मासु कमनीयं वस्तु श्रयति ददातीत्यर्थः, तथा (अस्य शत्रुः) अस्य विरोधी (आरात्-चित् सन्) दूरादपि सन् (भयताम्) बिभेति (अस्मै) अस्मै राज्ञे (जन्या द्युम्ना निनमन्ताम्) जायन्ते तद्देशे यानि तानि-अन्नानि भोग्यानि वस्तूनि “द्युम्नं द्योततेर्यशो वाऽन्नं वा” [निरु० ५।५] समर्पितानि भवन्ति ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, the ruler in whom we repose our faith with admiration and who assures our fulfilment in all we want and aspire for, is great and all powerful. His enemies, even though they be far off cower with fear and flee, and to him all the wealth and powers born and produced in the land submit in reverence and loyalty.