पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यस्मिन् इन्द्रे) = जिस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (वयम्) = हम (शंसं दधिम) = स्तुति को धारण करते हैं और (यः मघवा) = जो ऐश्वर्यशाली प्रभु (अस्मे) = हमारे में (कामम्) = काम को (शिश्राय) = [श्रयति= to use, employ] हमारी उन्नति के लिये विनियुक्त करते हैं 'काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिक: 'इस काम के द्वारा ही तो हमने वेद का स्वाध्याय करना है और इसी के द्वारा सारा वेद प्रतिपादित कर्मयोग क्रियान्वित होना है, सो (अस्य शत्रुः) = इस पुरुष का नाश करनेवाला यह काम (आराच्चित्) = दूर (चित्) = भी (सन्) = होता हुआ (भयताम्) = डरता ही रहे। इसके पास फटकने का तो इसे स्वप्न भी न हो और अब (अस्मै) = इस प्रभु के स्तोता के लिये जन्या मनुष्य का हित साधनेवाले (द्युम्ना) = [द्युम्न-धन नि० २।१०] धन (नि नमन्ताम्) = निश्चय से प्रह्वीभूत हों। इसे इन जन्य धनों की प्राप्ति हो । [२] [क] जब हम प्रभु का स्तवन करते हैं तो इसका (सर्वमहान्) = लाभ यह होता है कि हमारे जीवनों में काम शत्रु न बनकर मित्र की तरह कार्य करता है, प्रभु इस काम को हमारी =उन्नति के लिये विनियुक्त करते हैं । [ख] ऐसा होने पर शत्रुभूत काम हमारे पास भी नहीं फटकता, [ग] हम पुरुषार्थ करते हुए उन धनों को प्राप्त करते हैं जो जनहित के साधक होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु के स्तवन से काम हमारा शत्रु न रहकर मित्र हो जाए। हम लोकहित साधक धनों को प्राप्त करें ।