विप्र के सवनों में अश्विनी देवों की प्राप्ति
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (वा) = निश्चय से (अध्वर्युम्) = [ अ धार] अहिंसात्मक कर्मों को अपने साथ जोड़नेवाले यज्ञशील पुरुष को (गच्छथः) = प्राप्त होते हो। (मधुपाणिम्) = जिसके हाथ में मधु [= माधुर्य] है उस माधुर्य-युक्त क्रियाओंवाले को प्राप्त होते हो । सुहस्त्यम् उत्तम हाथोंवाले, अर्थात् कार्यकुशल पुरुष को प्राप्त होते हो । [२] अग्निधं वा = अथवा आप उस पुरुष को प्राप्त होते हो जो अग्नि का आधान करनेवाला है, अग्निहोत्र करनेवाला है । अथवा जो अपने अन्दर वैश्वानर अग्नि [ = जाठराग्नि] को आहित करता है, और परिणामतः (धृतदक्षम्) = बल को धारण करनेवाला है। [दक्ष = बल] तथा (दमूनसम्) = [ दमयना वा दानमना वा दान्तमना वा नि० ४।४] दान्त मनवाला है, अथवा दान की वृत्तिवाला है । यहाँ ' धृतदक्षम् ' शब्द 'अग्निधं व दमूनसम्' के बीच में रखा गया है बल की प्राप्ति के लिये दो ही मुख्य साधन हैं [क] जाठराग्नि का ठीक होना तथा [ख] मन का दमन । जाठराग्नि के ठीक होने से शक्ति की उत्पत्ति होती है और मन के दमन से उस उत्पन्न शक्ति का रक्षण होता है। वेदों में शब्द - विन्यास का यही सौन्दर्य है । [३] हे प्राणापानो! आप (विप्रस्य वा) = निश्चय से अपना विशिष्ट पूरण करनेवाले व्यक्ति के (यत्) = क्योंकि (सवनानि) = सवनों को (गच्छथः) = प्राप्त होते हो, अतः इसलिए आप (मधुपेयम्) = सोम है पेय जिसका उस मुझ को (आयातम्) = प्राप्त होइये। मैं (सोम) = वीर्य को शरीर में ही व्याप्त करके शरीर में आ जानेवाली कमियों को दूर करता हूँ। इस प्रकार 'वि-प्र' बननेवाले मुझे आप प्राप्त होइये । वस्तुतः इस मधु को भी तो मैंने आपके द्वारा ही पीना है, इस मधु को शरीर में व्याप्त करने के लिये प्राणसाधना आवश्यक है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम 'अध्वर्यु, मधुपाणि, सुहस्त्य, धृतदक्ष व दमूनस् व विप्र' बनें । इसी उद्देश्य से प्राणसाधना करें। प्राणसाधना के द्वारा विप्र बनकर २४ वर्ष के प्रातः सवन ४४ वर्ष के मध्यन्दिन सवन ४८ वर्ष के तृतीय सवन को हम पूर्ण करनेवाले हों । सूक्त का प्रारम्भ उत्तम शरीर रूप रथ की प्राप्ति के लिये प्रार्थना से हुआ है, [१] इस शरीर रथ को प्राप्त करके हम प्रातः - प्रातः योगाभ्यास करें, सतत क्रियाशील बनें और सोम को धारण करनेवाले बनें, [२] मधुपेय के द्वारा अपना विशेषरूप से पूरण करते हुए जीवन के तीनों सवनों को करते हुए पूरे ११६ वर्ष तक चलनेवाले हों। [३] इस प्रकार इस सूक्त का ऋषि 'सुहस्त्य' सोमपान के द्वारा अपने में सब दैवी सम्पत्ति को आकृष्ट करनेवाला 'कृष्ण' बनता है, यह स्वभावतः 'आंगिरस' = शक्तिशाली होता है और सदा प्रभु का स्तवन करता है-