'प्रातर्युज् - प्रातर्यावन्- मधुवाहन' रथ
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (नासत्या) - नासा में निवास करनेवाले अथवा सब असत्यों से दूर रहनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो! आप उस (रथम्) = रथ पर (अधितिष्ठथः) = आरूढ़ होते हो, जो [क] (प्रातर्युजम्) = प्रातः- प्रातः ही उस प्रभु से मेल करनेवाला है, योग का अभ्यास करनेवाला है। हमें चाहिये यही कि प्रातः प्रबुद्ध होकर योगाभ्यास अवश्य करें। [ख] (प्रातर्यावाणम्) = हमारा यह रथ प्रातः से ही गतिशील हो, हम सारा दिन अपने कर्त्तव्य कर्मों में लगे रहें । [ग] यह रथ (मधुवाहनम्) = मधु का वाहन बने । शरीर में उत्पन्न होनेवाली सोम शक्ति ही मधु है । यह शरीर रूप रथ उस सोम का वाहन बने। उत्पन्न हुआ हुआ सोम इस शरीर में ही व्याप्त हो । [२] यह रथ वह है (येन) = जिस से (यज्वरी: विश:) = यज्ञशील प्रजाओं को (गच्छथः) = आप प्राप्त होते हो। यह उत्तम रथ यज्ञशील प्रजाओं को प्राप्त होता है, यज्ञिय वृत्तिवाले लोग इस प्रकार के उत्तम शरीर को प्राप्त करते हैं । हें (नरा) = हमें आगे ले चलनेवाले प्राणापानो! इस रथ से आप (कीरेः चित्) = स्तोता के भी (होतृमन्तम्) = होतावाले, दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाले, (यज्ञम्) = यज्ञ को जाते हो। अर्थात् यह उत्तम शरीर रूप रथ स्तवन करनेवाले, यज्ञिय वृत्तिवाले पुरुष को प्राप्त होता है। शरीर को उत्तम बनाने के लिये आवश्यक है कि हम यज्ञशील व स्तोता बनें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारा यह शरीर 'प्रातर्युज्, प्रातर्यावन् व मधुवाहन' हो। हम प्रातः योगाभ्यास करें। प्रातः से ही क्रियाशील जीवनवाले हों और सोम का धारण करें।