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स॒मा॒नमु॒ त्यं पु॑रुहू॒तमु॒क्थ्यं१॒॑ रथं॑ त्रिच॒क्रं सव॑ना॒ गनि॑ग्मतम् । परि॑ज्मानं विद॒थ्यं॑ सुवृ॒क्तिभि॑र्व॒यं व्यु॑ष्टा उ॒षसो॑ हवामहे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samānam u tyam puruhūtam ukthyaṁ rathaṁ tricakraṁ savanā ganigmatam | parijmānaṁ vidathyaṁ suvṛktibhir vayaṁ vyuṣṭā uṣaso havāmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मा॒नम् । ऊँ॒ इति॑ । त्यम् । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । उ॒क्थ्य॑म् । रथ॑म् । त्रि॒ऽच॒क्रम् । सव॑ना । गनि॑ग्मतम् । परि॑ऽज्मानम् । वि॒द॒थ्य॑म् । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । व॒यम् । विऽउ॑ष्टौ । उ॒षसः॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १०.४१.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:41» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में ‘अश्विनौ’ शब्द से प्राण-अपान गृहीत हैं । उनका प्रातः प्राणायामरूप से चलाना स्वास्थ्यवर्धक तथा मन को एकाग्र करनेवाला है, यह वर्णन किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्-उषसः-व्युष्टौ) हम प्रकाशमान वेला में प्रातःकाल (समानं त्यम्-उ) समान धर्मवाले उस ही (पुरुहूतम्) अतीव ह्वातव्य-ग्रहण करने योग्य (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (त्रिचक्रम्) तीन चक्र-स्तुति प्रार्थना उपासना, चक्रवत् वर्तमान तथा तृप्तिकर जिसके हैं, ऐसे (परिज्मानम्) सर्वतः पृथ्वीभूमि जिसकी है, ऐसे (विदथ्यम्) अनुभव करने योग्य (रथम्) रमणीय मोक्ष को (सुवृक्तिभिः) सुप्रवृत्तियों-निर्दोष क्रियाओं से (सवना गनिग्मतम्) अवसर पर प्राप्त करने योग्य को (हवामहे) निमन्त्रित करें-धारण करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - प्रातःकाल उषा वेला में स्तुति प्रार्थना उपासना तृप्तिसाधन अङ्गोंवाले अनुभव करने योग्य मोक्ष को निर्दोष भावनाओं-क्रियाओं से जीवन में धारण करना चाहिए ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उत्तम शरीर - रथ

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत सूक्तों की ऋषिका 'घोषा काक्षीवती' थी, प्रभु के नाम का उच्चारण करनेवाली तथा शत्रुसंहार के लिये कटिबद्ध । इस घोषा का पुत्र 'घौषेय' है। खूब ही प्रभु के नाम का उच्चारण करनेवाला । यह 'सुहस्त्य' है, उत्तम हाथोंवाला है, कार्यकुशल है । 'प्रभु स्मरण करनेवाला कार्यकुशल' व्यक्ति उत्तम शरीर-रथ की कामना करता है। कहता है कि (वयम्) = हम (उषसो व्युष्टौ) = प्रातः काल के होते ही (त्यं उ) = उस ही (रथम्) = रथ को (हवामहे) = पुकारते हैं, उस शरीररथ के लिये प्रार्थना करते हैं जो कि [क] (समानम्) = सार आनयति हमें सम्यक् उत्साहयुक्त करता है, जीवन वही ठीक है जो कि उत्साह - सम्पन्न हो । [ख] (पुरुहूतम्) = जो बहुतों से पुकारा जाता है अथवा जिसका पुकारना, पालन व पूरण करनेवाला है। जिस शरीर को प्राप्त करके हम अपनी न्यूनताओं को दूर करके उन्नतिपथ पर आगे बढ़ सकें। [ग] (उक्थ्यम्) = जो रथ उक्थों में उत्तम है, स्तोत्रों में उत्तम है । जीवन वही उत्तम है कि जो प्रभु-स्तवन से युक्त हो । [घ] (त्रिचक्रम्) = जो रथ त्रिचक्र है, ज्ञान, कर्म व उपासना ही इस रथ के तीन चक्र हैं। अथवा 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' रूप तीन चक्रोंवाला यह रथ है । [ङ] (सवना गनिग्मतम्) = जो रथ तीनों सवनों तक चलनेवाला है। प्रातः सवन २४ वर्ष तक है, माध्यन्दिन सवन अगले ४४ वर्षों का है और तृतीय सवन अन्तिम ४८ वर्षों का है। इस प्रकार यह रथ ११६ वर्षों तक चलनेवाला हो। [च] (परिज्मानम्) = उस रथ को हम पुकारते हैं जो कि 'परितोगन्तारम्', अपने दैनिक कर्त्तव्यों को उत्तमता से निभानेवाला है । [छ] (विथ्यम्) = [विदथः यज्ञ नाम नि० ३ । १७, विदथानि वेदनानि नि० ६ । ७] यह रथ यज्ञों में उत्तम हो। हम जीवन में यज्ञों को करनेवाले हों। अथवा हम जीवन के लिये आवश्यक धनों को कमानेवाले हों। [२] 'ऐसे रथ को हम प्राप्त कैसे होंगे ?' इसका उत्तर 'सुवृक्तिभिः' शब्द से दिया गया है । सुष्ठु दोषवर्जन से हम ऐसे रथ को प्राप्त करेंगे। दोषों को दूर करते जाना ही अपने जीवन को उत्तम बनाने का मार्ग है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारा यह शरीररूप रथ दोषवर्जन के द्वारा उत्तम बने ।
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ब्रह्ममुनि

अस्मिन् सूक्ते ‘अश्विनौ’ शब्देन प्राणापानौ गृह्येते । प्रातरेव तयोः प्राणायामविधिना चालनं स्वास्थ्यकरं तथा मनस एकाग्रत्वञ्च भवतीति प्रदर्शितम् ।

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्-उषसः-व्युष्टौ) वयं भासमानायां प्रकाशवेलायां प्रातः (समानं त्यम्-उ ) समानधर्माणं तमेव (पुरुहूतम्) अतीव ह्वातव्यं ग्राह्यम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (त्रिचक्रम्) त्रीणि चक्राणि-स्तुतिप्रार्थनो-पासनारूपाणि चक्रवदावर्तनीयानि तृप्तिकराणि वा यस्य तम् “चक तृप्तियोगे” [भ्वादिः] (परिज्मानम्) परितो ज्मा पृथिवी प्रथिता भूमिर्यस्य तथाभूतम् (विदथ्यम्) वेदनीयमनुभवनीयम् (रथम्) रमणीयं मोक्षम् (सुवृक्तिभिः) सुप्रवृत्तिभिर्निर्दोषक्रियाभिः (सवना-गनिग्मतम्) अवसरे प्रापणीयम् (हवामहे) निमन्त्रयामहे-धारयेम ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Ashvins, harbingers of new light and energy, in the light of the dawn with holy chant of mantric formulae, we invoke and call for that constant and invariable, universally loved and invoked, venerable and purposefully specialised three stage three wheeled chariot which would be constantly on the move to reach yajnic programmes all over the earth.