भुज्यु -वश- शिञ्जार- उशमा - ररावा
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (ह) = निश्चय से (भुज्युम्) = [भुज् - यु] पालन के लिये भोजन करनेवाले को (उपारथुः) = प्राप्त होते हो। दूसरे शब्दों में शरीर-रक्षण के लिये ही भोजन करनेवाला 'प्राणयात्रिक मात्र' पुरुष प्राणापान की शक्ति को प्राप्त करता है। [२] (युवम्) = आप दोनों (वशम्) = अपनी इन्द्रियों को वश में करनेवाले को प्राप्त होते हो । जितेन्द्रिय पुरुष ही प्राणापान की शक्ति का वर्धन करनेवाला होता है । [३] (युवम्) = आप दोनों (शिञ्जारम्) = भूषणों के शब्द की तरह मधुर शब्दों में प्रभु-उपासन करनेवाले को प्राप्त होते हो । प्रभु उपासना जितेन्द्रिय बनने में सहायक होती हैं, और जितेन्द्रिय पुरुष ही प्राणयात्रा के लिये ही, न कि स्वाद के लिये, भोजन करनेवाला होता है। [४] (उशनाम्) = [नि० ६ । १३] सर्वहित की कामना करनेवाले को आप प्राप्त होते हो । द्वेषादि से प्राणापान की शक्ति की क्षीणता होती है। द्वेष से ऊपर उठकर हृदय में सब के भद्र का चिन्तन करने से प्राणापान की शक्ति का वर्धन होता है। सर्वहित की भावना 'शिञ्जार' = प्रभु-भक्त में ही उत्पन्न होती है । [५] (ररावा) = खूब देनेवाला, त्याग की वृत्तिवाला पुरुष, (युवोः) = आप दोनों के (सख्यम्) = मित्रता को परि आसते सर्वथा प्राप्त करता है। स्वार्थ की भावना भी प्राणशक्ति का क्षय करती है। सो (अहम्) = मैं (युवोः अवसा) = आप दोनों के रक्षण से (सुम्नम्) = सुख की (आचके) = कामना करता हूँ । प्राणापान का रक्षण मिलने पर ही मनुष्य का जीवन सुखी होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान की शक्ति 'भुज्यु - वश - शिञ्जार- उशना व ररावा' को प्राप्त होती है । 'भुज्यु' बनने के लिये, 'वश' होने की आवश्यकता है। 'वश' बनने के लिये 'शिञ्जार' बनना सहायक होता है। 'शिञ्जार' अवश्य 'उशना' बनता है और वह 'ररावा' होता है । एवं 'शिञ्जार' केन्द्रीभूत शब्द है। एक ओर वह हमें 'भुज्यु व वश' बनाता है, तो दूसरी ओर हम उससे 'उशना व ररावा' बनते हैं। एवं प्रभु-स्तवन का महत्त्व सुव्यक्त है ।