पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (कवी) = क्रान्तप्रज्ञ, अत्यन्त मेधावी (स्थः) = हो आपकी साधना से ही तीव्र बुद्धि प्राप्त होती है। [२] (अश्विना) = प्राणापानो! आप ही (रथं परिस्थः) = इस शरीर रूप रथ को सब ओर से सुरक्षित करते हो। प्राणापान ही शरीर की रोगादि के आक्रमण से रक्षा करते हैं । उसी प्रकार रक्षा करते हैं, (न) = जैसे (कुत्सः) = [कुत्सयते इति कुत्स, तस्य] बुराई की निन्दा करनेवाले (जरितुः) [जरते = to fraise] = स्तोता (विश:) = पुरुष की (परि नशायथः) = रक्षा के लिये सर्वतः प्राप्त होते हैं । प्राणसाधना के साथ यह आवश्यक है कि- [क] हम अशुभ को अशुभ समझें और उसे अपने से दूर करने के लिये यत्नशील हों [कुत्स्], [ख] तथा अशुभ को दूर करने के लिये ही प्रभु के स्तवन को अपनाएँ [ जरिता] । [३] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मक्षा) = मक्खी (ह) = निश्चय से (युवो:) = आप दोनों के (आसा) = मुख से (मधु) = शहद को (परि-भरत) = धारण करती है । (न) = उसी प्रकार धारण करती है जैसे कि (योषणा) = एक स्त्री (निष्कृतम्) = परिशुद्ध गृह को धारण करती है। इस उपमा से दो बातें स्पष्ट की गई है कि- [क] मधु कोई उच्छिष्ट वस्तु नहीं, वह तो (निष्कृत) = पूर्ण शुद्ध है। [ख] यह शहद दोषों को दूर करके उत्तमताओं का आधान करनेवाला है [योषणा- यु- मिश्रणा - अमिश्रण]। यह कहने से कि 'मक्खी आपके [प्राणापान के] मुख से शहद को बनाती है' भाव यह है कि शहद प्राणापान का वर्धन करनेवाला है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान जहाँ बुद्धि का वर्धन करते हैं, वहाँ शरीररूप रथ को सुदृढ़ बनाते हैं । शहद प्राणापान का वर्धन करनेवाला है । सम्भवतः इसीलिए यह अश्विनी देवों का भोजन कहलाता है।