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यु॒वं क॒वी ष्ठ॒: पर्य॑श्विना॒ रथं॒ विशो॒ न कुत्सो॑ जरि॒तुर्न॑शायथः । यु॒वोर्ह॒ मक्षा॒ पर्य॑श्विना॒ मध्वा॒सा भ॑रत निष्कृ॒तं न योष॑णा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvaṁ kavī ṣṭhaḥ pary aśvinā rathaṁ viśo na kutso jaritur naśāyathaḥ | yuvor ha makṣā pary aśvinā madhv āsā bharata niṣkṛtaṁ na yoṣaṇā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम् । क॒वी इति॑ । स्थः॒ । परि॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । रथ॑म् । विशः॑ । न । कुत्सः॑ । ज॒रि॒तुः । न॒शा॒य॒थः॒ । यु॒वोः । ह॒ । मक्षा॑ । परि॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । मधु॑ । आ॒सा । भ॒र॒त॒ । निः॒ । कृ॒तम् । न । योष॑णा ॥ १०.४०.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:40» मन्त्र:6 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना युवम्) हे शिक्षित स्त्री-पुरुषों ! तुम (कवी स्थः) ज्ञानी हो (विशः-न रथम्) प्रजाएँ जिस प्रकार रमणीक सुखप्रद राजा को धारण करती हैं-उसकी आज्ञा में चलती हैं (कुत्सः-जरितुः-नशायथः) जो स्तुतिकर्त्ता है, उस स्तुतिकर्त्ता के अभिप्राय या अभीष्ट को तुम पूरा करते हो (युवोः-ह मक्षा) तुम दोनों मधुमक्षिका जैसे (आसा) मुख से (मधु परि भरत) मधु को चारों ओर से लेती है, वैसे ही (योषणा न निष्कृतम्) अथवा गृहिणी जैसे घर को सब ओर से सुसज्जित रखती है, वैसे तुम भी रखो ॥६॥
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुष शिक्षित होकर सुखद राजा के शासन में रहते हुए और परमात्मा की स्तुति करते हुए गृहस्थ जीवन का सुख संचित करें। सद्गृहिणी रहने के स्थान को सुसंस्कृत रखे ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मधु-भरण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (कवी) = क्रान्तप्रज्ञ, अत्यन्त मेधावी (स्थः) = हो आपकी साधना से ही तीव्र बुद्धि प्राप्त होती है। [२] (अश्विना) = प्राणापानो! आप ही (रथं परिस्थः) = इस शरीर रूप रथ को सब ओर से सुरक्षित करते हो। प्राणापान ही शरीर की रोगादि के आक्रमण से रक्षा करते हैं । उसी प्रकार रक्षा करते हैं, (न) = जैसे (कुत्सः) = [कुत्सयते इति कुत्स, तस्य] बुराई की निन्दा करनेवाले (जरितुः) [जरते = to fraise] = स्तोता (विश:) = पुरुष की (परि नशायथः) = रक्षा के लिये सर्वतः प्राप्त होते हैं । प्राणसाधना के साथ यह आवश्यक है कि- [क] हम अशुभ को अशुभ समझें और उसे अपने से दूर करने के लिये यत्नशील हों [कुत्स्], [ख] तथा अशुभ को दूर करने के लिये ही प्रभु के स्तवन को अपनाएँ [ जरिता] । [३] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मक्षा) = मक्खी (ह) = निश्चय से (युवो:) = आप दोनों के (आसा) = मुख से (मधु) = शहद को (परि-भरत) = धारण करती है । (न) = उसी प्रकार धारण करती है जैसे कि (योषणा) = एक स्त्री (निष्कृतम्) = परिशुद्ध गृह को धारण करती है। इस उपमा से दो बातें स्पष्ट की गई है कि- [क] मधु कोई उच्छिष्ट वस्तु नहीं, वह तो (निष्कृत) = पूर्ण शुद्ध है। [ख] यह शहद दोषों को दूर करके उत्तमताओं का आधान करनेवाला है [योषणा- यु- मिश्रणा - अमिश्रण]। यह कहने से कि 'मक्खी आपके [प्राणापान के] मुख से शहद को बनाती है' भाव यह है कि शहद प्राणापान का वर्धन करनेवाला है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान जहाँ बुद्धि का वर्धन करते हैं, वहाँ शरीररूप रथ को सुदृढ़ बनाते हैं । शहद प्राणापान का वर्धन करनेवाला है । सम्भवतः इसीलिए यह अश्विनी देवों का भोजन कहलाता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना युवम्) हे शिक्षितौ स्थविरौ स्त्रीपुरुषौ ! युवाम् (कवी स्थः) क्रान्तदर्शिनौ ज्ञानिनौ स्थः (विशः न रथम्) प्रजाः-यथा रमणीयं सुखप्रदं राजानं धारयन्ति (कुत्सः जरितुः-नशायथः) यः स्तुतिकर्त्ता “कुत्सः कर्त्ता स्तोमानाम्” [निरु० ३।१२] तस्य स्तुतिकर्त्तुरभिप्रायं प्राप्नुथः “नशत्-व्याप्तिकर्मा” [निघ० २।१८] (युवोः ह मक्षा) युवां मधुमक्षिका यथा ‘विभक्तिव्यत्ययेन प्रथमास्थाने षष्ठी’ (आसा) आस्येन मुखेन (मधु परि भरत) मधु परितो गृह्णाति तद्वत् (योषणा न निष्कृतम्) अथवा गृहिणी सुसंस्कृतं गृहं परितो रक्षति तथा भवतम् ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Ashvins, you are visionary poetic creators, stay fast on the chariot, go to the people and appreciate their songs of adoration as a creator and maker of songs would. The honey sweets of your creation, the honey bees taste and drink with their mouth as a youthful woman loves the sweet beauty of her new home.