पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (नरा) = जीवनयात्रा में हमारी उन्नति के कारणभूत (अश्विना) = अश्विनी देवो! प्राणापानो (युवाम्) = आप दोनों को (ह) = निश्चय से (राज्ञः दुहिता) = राजा की पुत्री, अर्थात् अपने जीवन को अत्यन्त दीप्त करनेवाली अथवा [ राज्= to reqnlate] अपने जीवन को व्यवस्थित करनेवाली (यती) = क्रियाशील (घोषा) = स्तुति वचनों का आघोष करनेवाली मैं (परि-ऊचे) = सदा कहती आपके ही प्रशंसा - वचनों का उच्चारण करती हूँ और (वां पृच्छे) = आपसे ही यह प्रार्थना करती हूँ, पूछती हूँ कि आप अह्न दिन के लिये मे (भूतम्) = मेरे होइये (उत) = और (अक्तवे) = रात्रि के लिये भी [मे] (भूतम्) = मेरे होइये, अर्थात् आप दिन-रात मेरा कल्याण सिद्ध करनेवाले हों, वस्तुतः दिन में होनेवाले सारे कार्य इन प्राणापानों के द्वारा ही होते हों और रात को भी अन्य सब इन्द्रियों के सो जाने पर ये प्राणापान ही जागते रहते हैं और रक्षण का कार्य करते हैं। रात में ये सारे शरीर का शोधन करके नव शक्ति का सब अंगों में संचार करते हैं और उन्हें अत्यन्त दृढ़ बना देते हैं । [२] हे प्राणापानो! आप (अश्वावते) = उत्तम इन्द्रिय रूप अश्वोंवाले (रथिने) = शरीररूप रथवाले (अर्वते) = [अर्व हिंसायाम्] विघ्नों का हिंसन करनेवाले मेरे लिये (शक्तम्) = शक्ति को देनेवाले होइये । वस्तुतः आपकी कृपा से ही मेरे इन्द्रियाश्व शक्तिशाली बनते हैं, मेरा शरीर रथ ठीक होता है और मैं मार्ग में आनेवाले काम-क्रोधादि, उन्नति के विघ्न-भूत, दोषों को जीतनेवाला बनता हूँ ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान की साधना की सफलता 'घोषा, यती व राज्ञः दुहिता' बनने से होती है, इस साधना के लिये 'प्रभु-स्तवन, क्रियाशीलता व नियम परायणता' आवश्यक है। इस साधना से दिन-रात उत्तम बीतते हैं, हमारा इन्द्रियाश्व व शरीर रथ दृढ़ होता है, विघ्नों को दूर करने में हम समर्थ होते हैं ।