उल्लास पूरणता व यज्ञशीलता
पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्राणापान का आराधक प्राणसिद्धि को न देखकर आतुरता से कहता है कि हे (दस्त्रा) = सब दोषों का उपक्षय करनेवाले [दस्-उपक्षये] उपक्षय करनेवाले (शुभस्पती) = सब शुभों के रक्षक (अश्विना) = अश्विनी (देवो) = प्राणापानो! (अद्य) = आज आप (क्व स्वित्) = कहाँ हो ! मैं तो आपको प्राप्त नहीं कर रहा। (कतमासु विक्षु) = किन प्रजाओं में (मादयेते) = आप आनन्द का अनुभव कर रहे हो । कौन प्रजाएँ आपकी साधना से आनन्द व तृप्ति का अनुभव कर रही हैं ? (कः) = कौन (ईम्) = सचमुच (नियेमे) = आपका नियमन करता है। आपका नियमन करनेवाला वस्तुतः सुखी [कः] होता है । [२] आप (कतमस्य) = अत्यन्त आनन्दमय मनोवृत्तिवाले (विप्रस्य) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले (वा) = तथा (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुष के (गृहम्) = घर (जग्मतुः) = जाते हैं । अर्थात् प्राणापान की साधना वही कर पाता है जो कि [क] मन में आनन्द व उल्लास को रखे, [ख] अपनी कमियों को दूर करने की भावनावाला हो तथा [ग] यज्ञशील होता है। इसी प्रकार प्राणसाधना से 'उल्लास, पूरणता व यज्ञशीलता' प्राप्त होती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- मैं प्राणसाधना के लिये आतुर बनूँ । प्राणसाधना करके जीवन को उल्लासमय बनाऊँ, कमियों को दूर कर पाऊँ तथा यज्ञियवृत्तिवाला होऊँ । सूक्त का प्रारम्भ प्रभु रूप रथ के वर्णन से होता है, [१] प्राणों के सहाय से ही यह जीवनयात्रा पूर्ण होती है, [२] प्राणापान शरीर के दोषों को जीर्ण करनेवाले हैं, [३] ये शरीर में सब शुभों का रक्षण करते हैं, [४] प्राणसाधना के लिये प्रभु-स्तवन, क्रियाशीलता व नियमपरायणता आवश्यक है, [५] ये शरीर रूप रथ को सुदृढ़ बनाते हैं, [६] प्राणापान की शक्ति 'भुज्यु, वश, शिञ्जार व उशना' को प्राप्त होती है, [७] ये हमारी इन्द्रियों को विषय-भोग-प्रवण नहीं होने देते, [८] हमें अपनी इन्द्रियों का पति बनना है नकि दास, [९] हम 'प्रभु स्मरण, यज्ञरुचिता व व्रतबन्धन' को अपनाने का प्रयत्न करें, [१०] घर में पति वही ठीक है जो कि अनपढ़ नहीं और कमजोर नहीं, [११] पति न कामातुर हो न कृपण, [१२] हमारा घर तीर्थ बन जाये, [१३] हम उल्लास- पूरणता की प्रवृत्ति, तथा यज्ञशीलता को धारण करें, [१४] प्रातः प्रभु का स्मरण करें-