काम-नियमन -न कामातुर न कृपण
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार पति-पत्नी घर को बनाकर अश्विनी देवों से प्रार्थना करते हैं कि हे (वाजिनीवसू) = अन्नरूप धनवाले अश्विना प्राणापानो ! (वाम्) = आप दोनों की (सुमतिः) = कल्याणीमति (आ अगन्) = हमें सर्वथा प्राप्त हो । प्राणापान को अन्न-धनवाले इसलिए कहा है कि इन्हीं से अन्न का पाचन होता है। वैश्वानर अग्नि [ =जाठराग्नि] प्राणापान से युक्त होकर सब अन्नों का पाचन करती है। अन्न का ठीक पाचन होकर इस सात्त्विक अन्न से सात्त्विक ही बुद्धि भी प्राप्त होती है। [२] हे [अश्विना =] प्राणापानो! आपकी कृपा से (कामाः) = वासनाएँ (हृत्सु) = हृदयों में (नि अयंसत) = पूर्णरूपेण नियमित हों। कामवासना का नियमन ही गृहस्थ का सर्वमहान् कर्त्तव्य है । इसके नियमित होने पर सन्तान भी उत्तम होते हैं और पति-पत्नी की शक्ति भी स्थिर रहती है। इससे नीरोगता व दीर्घजीवन सिद्ध होते हैं । [३] हे प्राणापानो! आप (गोपा अभूतम्) = हमारी इन्द्रियों का रक्षण करनेवाले होइये। आप (मिथुना) = द्वन्द्व रूप में (शुभस्पती) = सब शुभों के पति हो । प्राणापान की साधना के होने पर जहाँ इन्द्रियों के दोष दग्ध होते हैं, वहाँ शरीर में सब शुभों का रक्षण होता है । [४] इस मन्त्र की समाप्ति पर पत्नी बननेवाली युवति कामना करती है कि (प्रिया:) = पति की प्रिय होती हुई हम प्रियरूपवाली होती हुई हम (अर्यम्णः) = [अदीन् यच्छति] कामादि को वश करनेवाले, नियमित वासनावाले तथा [अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति ], अकृपण पति के (दुर्यान्) = घरों को (अशीमहि) = हम प्राप्त करें। हमें ऐसा पति प्राप्त हो जो न तो कामातुर हो और नांही कृपण ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - गृहस्थ का मूल मन्त्र यही है कि वासना का नियन्त्रण हो पति न कामातुर हो, नांही कृपण ।