पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे अश्विना प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (ह) = निश्चय से (वृषणा) = शक्ति को देनेवाले हो और सब सुखों की वर्षा करनेवाले हो आप (रेभम्) = प्रभु के स्तवन करनेवाले को, (ममृवांसम्) = अब जो आसन्न मृत्यु है, पर (गुहा हितम्) = अन्तःकरण की गुहा में केन्द्रित ध्यान वृत्तिवाला है, उसे (उदैरयतम्) = उत्कृष्ट लोकों में प्राप्त कराते हो। इन्हीं के लिये 'ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्थाः' इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। प्राणसाधना करनेवाला उपासक मृत्युशय्या पर ध्यानावस्थित हुआ हुआ प्रभु का ही स्मरण करता है और इस शरीर को छोड़कर ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है। [२] हे प्राणापानो! आप सप्तवध्रये='कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख इन सातों को संयम के बन्धन में बाँधनेवाले (अत्रये) = [अ-त्रि] 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों से ऊपर उठे हुए पुरुष के लिये (तप्तं ऋबीसम्) = इस संतप्त अग्निकुण्ड [ऋबीसम्= Abyss ] रूप संसार को (ओमन्वन्तम्) = [अवनवन्तं] रक्षणवाला (चक्रथुः) = करते हो । संयमी पुरुष के लिये यह संसार शान्त सरोवर के तुल्य है। यही संसार असंयमी के लिये नरक की अग्नि के समान तपा हुआ हो जाता है। इस संयम के लिये प्राणसाधना कारण बनती है सो मन्त्र में इस भाव को कहा गया है। कि प्राणापान इस संसाररूप तप्त अग्निकुण्ड को नाशक के स्थान में रक्षक बना देते हैं । प्राणसाधना ही हमें अत्रि बनाती है। अब 'काम' हमारे शरीर का ध्वंस नहीं करता, 'क्रोध' हमारे मन को क्षुब्ध नहीं करता और 'लोभ' हमारी बुद्धि को भ्रष्ट नहीं करता। इस प्रकार प्राणसाधना हमारा रक्षण करती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना से [क] हम स्तोता बनकर मृत्युशय्या पर भी प्रभु स्मरण करते हुए ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं और [ख] इस संसार में 'अत्रि' बनकर तप्त अग्निकुण्ड को शान्त सरोवर में परिवर्तित करनेवाले होते हैं। हमारे लिये यह संसार सुखमय ही रहता है।