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यु॒वं ह॑ रे॒भं वृ॑षणा॒ गुहा॑ हि॒तमुदै॑रयतं ममृ॒वांस॑मश्विना । यु॒वमृ॒बीस॑मु॒त त॒प्तमत्र॑य॒ ओम॑न्वन्तं चक्रथुः स॒प्तव॑ध्रये ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvaṁ ha rebhaṁ vṛṣaṇā guhā hitam ud airayatam mamṛvāṁsam aśvinā | yuvam ṛbīsam uta taptam atraya omanvantaṁ cakrathuḥ saptavadhraye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम् । ह॒ । रे॒भम् । वृ॒ष॒णा॒ । गुहा॑ । हि॒तम् । उत् । ऐ॒र॒य॒त॒म् । म॒मृ॒ऽवांस॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । ऋ॒बीस॑म् । उ॒त । त॒प्तम् । अत्र॑ये । ओम॑न्ऽवन्तम् । चक्रथुः । स॒प्तऽव॑ध्रये ॥ १०.३९.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:39» मन्त्र:9 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (युवम्-अश्विना) हे अध्यापक उपदेशकों ! तुम दोनों (वृषणा) सुखवर्षको ! (ह रेभं गुहा हितं ममृवांसम्-उत् ऐरयतम्) हृदयगुहा में या बुद्धि में स्थित मरणासन्न स्तोता जीव को स्वस्थ करते हो (युवम्) तुम दोनों (ऋबीसम्-उत तप्तम्) अन्धकारपूर्ण तापकारी देह को (सप्तवध्रये) पाँच ज्ञानेन्द्रिय मन और बुद्धि ये सात संयत हो गई हैं जिसकी, ऐसे (अत्रये) भोक्ता जीवात्मा के लिए (ओमन्वन्तं चक्रथुः) रक्षावाले शान्त पद को बनाते हो ॥९॥
भावार्थभाषाः - अध्यापक और उपदेशक सुख के बरसानेवाले होते हैं। वे हृदय में विराजमान मरणासन्न स्तोता जीव को अमर बना देते है और शरीर के संताप को दूर करते हैं। इन्द्रियों के विषयों से विरक्त हुए को सुरक्षित और अमृतभोग का भागी बना देते हैं ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'रेभ' व 'सप्तवधि- अत्रि'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे अश्विना प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (ह) = निश्चय से (वृषणा) = शक्ति को देनेवाले हो और सब सुखों की वर्षा करनेवाले हो आप (रेभम्) = प्रभु के स्तवन करनेवाले को, (ममृवांसम्) = अब जो आसन्न मृत्यु है, पर (गुहा हितम्) = अन्तःकरण की गुहा में केन्द्रित ध्यान वृत्तिवाला है, उसे (उदैरयतम्) = उत्कृष्ट लोकों में प्राप्त कराते हो। इन्हीं के लिये 'ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्थाः' इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। प्राणसाधना करनेवाला उपासक मृत्युशय्या पर ध्यानावस्थित हुआ हुआ प्रभु का ही स्मरण करता है और इस शरीर को छोड़कर ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है। [२] हे प्राणापानो! आप सप्तवध्रये='कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख इन सातों को संयम के बन्धन में बाँधनेवाले (अत्रये) = [अ-त्रि] 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों से ऊपर उठे हुए पुरुष के लिये (तप्तं ऋबीसम्) = इस संतप्त अग्निकुण्ड [ऋबीसम्= Abyss ] रूप संसार को (ओमन्वन्तम्) = [अवनवन्तं] रक्षणवाला (चक्रथुः) = करते हो । संयमी पुरुष के लिये यह संसार शान्त सरोवर के तुल्य है। यही संसार असंयमी के लिये नरक की अग्नि के समान तपा हुआ हो जाता है। इस संयम के लिये प्राणसाधना कारण बनती है सो मन्त्र में इस भाव को कहा गया है। कि प्राणापान इस संसाररूप तप्त अग्निकुण्ड को नाशक के स्थान में रक्षक बना देते हैं । प्राणसाधना ही हमें अत्रि बनाती है। अब 'काम' हमारे शरीर का ध्वंस नहीं करता, 'क्रोध' हमारे मन को क्षुब्ध नहीं करता और 'लोभ' हमारी बुद्धि को भ्रष्ट नहीं करता। इस प्रकार प्राणसाधना हमारा रक्षण करती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना से [क] हम स्तोता बनकर मृत्युशय्या पर भी प्रभु स्मरण करते हुए ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं और [ख] इस संसार में 'अत्रि' बनकर तप्त अग्निकुण्ड को शान्त सरोवर में परिवर्तित करनेवाले होते हैं। हमारे लिये यह संसार सुखमय ही रहता है।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (युवम्-अश्विना) युवां हि अश्विनौ ! (वृषणा) सुखवर्षकौ ! (ह रेभं गुहा हितं ममृवांसम्-उदैरयतम्) हृद्गुहायां बुद्धौ वा स्थितं स्तोतारं जीवं ममृवांसं मरणासन्नमुन्नयथः स्वस्थं कुरुथः (युवम्) युवाम् (ऋबीसम्-उत तप्तम्) अन्धकारपूर्णं देहम् “ऋबीसमपगतभासम्” [निरु० ६।३६] अपितु तापकरम् (सप्तवध्रये) “पञ्चचक्षुरादीनीन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च सप्त हतानि यस्य तस्मै” [यजु० ५।७८ दयानन्दः]  “सप्तवध्रिम् हतसप्तेन्द्रियम्” [ऋ० ५।७२।५ दयानन्दः] (अत्रये) अत्त्रे-भोक्त्रे-आत्मने (ओमन्वन्तं चक्रथुः) शान्तं रक्षणवन्तं कुरुथः ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - You revive the sinking man who has lost consciousness, all but surviving in the brain, and muttering from the subconscious. You cure the man in high fever in the state of delirium and restore him to health, full consciousness and self-immunity with all his five senses, mind and intelligence fully working in perfect order.