पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप (जरणां उपेयुषः) = वृद्धावस्था को प्राप्त हुए हुए (विप्रस्य) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले (कले) = [कल संख्याने = to think ] विचारशील पुरुष के (पुनः) = फिर से (युवद्वयः) = यौवनावस्था को (अकृणुतम्) = करते हो, विचारशील व अपना पूरण करनेवाला पुरुष वृद्धावस्था में भी युवा ही बना रहता है। वह भोजन के संयम से शक्ति को जीर्ण नहीं होने देता और प्राणसाधना के द्वारा रोगों को अपने से दूर रखता है। परिणामतः युवा बना रहता है । [२] (युवम्) = आप दोनों (वन्दनम्) = स्तुति करनेवाले को, प्रभु के उपासक को, (ऋश्यदात्) = [ऋश्यं-killing द- देनेवाला] विनाश के कारणभूत व्यसनकूप से (उदूपथुः) = ऊपर उठाते हो । प्रभु का स्तोता प्राणसाधना के द्वारा व्यसनों का शिकार नहीं होता। प्राणसाधक स्तोता की वृत्ति सदा उत्तम बनी रहती है। [३] हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप (विश्पलाम्) = प्रजाओं का उत्तमता से पालन करनेवाली को (सद्यः) = शीघ्र ही (एतवे) = गति के लिये (कृथः) = करते हो। कोई भी गृहिणी जो कि सन्तानों का उत्तमता से पालन करना अपना कर्त्तव्य समझती है वह प्राणसाधना से आयसी जंघा [अनथक लोहे की टाँगें] प्राप्त करके क्रिया में लगी रहती है। प्राणापान की साधना से इसे थकावट नहीं आती और यह अनथक कार्य करती हुई सन्तानों का समुचित पालन कर पाती है और अपने 'विश्पला' नाम को सार्थक करती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान की साधना के तीन लाभ हैं— [क] वार्धक्य का न आना, [ख] व्यसनों में न फँसना और [ग] अनथक क्रियाशीलता ।