प्राण - महत्त्व [प्राण ही सर्वस्व हैं]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] इन मन्त्रों की ऋषिका 'घोषा' कहती है कि (इयम्) = यह मैं (वाम्) = आप दोनों को (अह्वे) = पुकारती हूँ । (मे शृणुतम्) = मेरी प्रार्थना को आप सुनिये। हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मह्यम्) = मेरे लिये उसी प्रकार (शिक्षतम्) = [ धनं दत्तम् सा० ] स्वास्थ्य आदि के धन को दीजिये (इव) = जैसे कि (पुत्राय) = पुत्र के लिये (पितरा) = माता-पिता धन देने की कामना करते हैं । [२] हे प्राणापानो! आपके बिना तो मैं (अनापिः) = बन्धु - शून्य हूँ । वस्तुतः हे प्राणापानो! आप ही मेरे बन्धु हो । (अज्ञा) = आप के अभाव में मैं ज्ञानशून्य हूँ । प्राणसाधना से ही ज्ञान की भी वृद्धि होती है । असजात्या- आपके अभाव में मेरा कोई सजात्य नहीं है। जीते के ही सब रिश्तेदार हैं, प्राणों के साथ ही बिरादरी है। प्राण गये, सब गये । (अमतिः) = आपके अभाव में मेरी मनन शक्ति भी तो समाप्त हो जाती है । प्राणसाधना से ही मति का प्रकर्ष प्राप्त होता है । [३] हे प्राणापानो! (तस्या:) = उस 'अनापित्व, अज्ञत्व, असजात्यत्व व अमतित्व' रूपी (अभिशस्ते :) = हानि [hurt, injury ] से (पुरा) = पूर्व ही आप (अवस्पृतम्) = मुझे सब रोग आदि कष्टों से पार करो । रोगों से ऊपर उठकर, प्राण-सम्पन्न जीवन को बिताते हुए मैं मित्रों को भी प्राप्त करूँगी, मेरा ज्ञान उत्कृष्ट होगा, कितने ही मेरे सजात्य होंगे और मेरी मति भी खूब ठीक ही होगी ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणों के साथ ही मित्र हैं, ज्ञान है, रिश्तेदार हैं और मननशील मन है ।