पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (नासत्या) = नासिका में रहनेवाले अथवा असत्य से रहित प्राणापानों! (अयम्) = यह मैं (वाम्) = आप दोनों के (पुराणा) = सनातन वीर्या शक्तियों को (जने) = लोगों में (प्रब्रवा) = खूब ही कहता हूँ । (अथो) = और (ह) = निश्चय से आप दोनों मयोभुवा कल्याण का भावन करनेवाले (भिषजा) = वैद्य (असथुः) = हो । इन प्राणापानों की साधना से सब रोग दूर होते हैं और कल्याण की प्राप्ति होती है । [२] (ता वाम्) = उन आप दोनों को अवसे रक्षण के लिये (नव्या) = स्तुति के योग्य (करामहे) = करते हैं। हम प्राणापानों का स्तवन करते हैं और वे प्राणापान हमारा रक्षण करते हैं । [३] हे प्राणापानो ! आप ऐसी ही कृपा करो (यथा) = जिससे (अयं अरिः) = यह आपका उपासक (श्रत् दधत्) = सत्य का धारण करनेवाला हो। इस उपासक का शरीर रोगों से रहित होकर नीरोग हो, इसका मन द्वेषादि से रहित होकर प्रेमपूर्ण हो, इसकी बुद्धि तीव्र व सात्त्विक हो । शरीर में रोग ही असत्य है, मन में द्वेष असत्य है और बुद्धि में मन्दता असत्य है। ये रोग द्वेष व मन्दता प्राणसाधना से दूर होती है और इन प्राणों का उपासक सत्य [ श्रत्] को धारण करनेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान कल्याण करनेवाले वैद्य हैं। इनका उपासक 'नीरोगता निर्मलता व बुद्धि की तीव्रता' रूप सत्य को धारण करता है ।