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अ॒मा॒जुर॑श्चिद्भवथो यु॒वं भगो॑ऽना॒शोश्चि॑दवि॒तारा॑प॒मस्य॑ चित् । अ॒न्धस्य॑ चिन्नासत्या कृ॒शस्य॑ चिद्यु॒वामिदा॑हुर्भि॒षजा॑ रु॒तस्य॑ चित् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

amājuraś cid bhavatho yuvam bhago nāśoś cid avitārāpamasya cit | andhasya cin nāsatyā kṛśasya cid yuvām id āhur bhiṣajā rutasya cit ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒मा॒ऽजुरः॑ । चि॒त् । भ॒व॒थः॒ । यु॒वम् । भगः॑ । अ॒ना॒शोः । चि॒त् । अ॒वि॒तारा॑ । अ॒प॒मस्य॑ । चि॒त् । अ॒न्धस्य॑ । चि॒त् । ना॒स॒त्या॒ । कृ॒शस्य॑ । चि॒त् । यु॒वाम् । इत् । आ॒हुः॒ । भि॒षजा॑ । रु॒तस्य॑ । चि॒त् ॥ १०.३९.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:39» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:15» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे असत्यज्ञान और असत्य आचरण से रहित सद्वैद्यो ! या आग्नेय सोम्य पदार्थो ! (युवम्) तुम दोनों (अमाजुरः-भगं चित्) गृह में वर्त्तमान-गृहस्थजन के भजनीय शरीर की तथा (अनाशोः-अपमस्य चित्-अवितारा भवथः) भोजन करने में अशक्त और रक्तादिधातुक्षीण मनुष्य के रक्षक हो (अन्धस्य चित्-कृशस्य चित्-रुतस्य चित्) दृष्टिहीन के, दुर्बल के और रोगी के भी (युवां भिषजा-आहुः) तुम दोनों को विद्वान् लोग वैद्य कहते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - राष्ट्र के अन्दर ऐसे कुशल ओषधिचिकित्सक और शल्यचिकित्सक वैद्य होने चाहिए, जो गृहस्थ में वर्तमान दम्पति के शरीर को स्वस्थ रख सकें तथा भोजन करने में असमर्थ, रक्तादि धातुक्षीण निर्बल मनुष्य, नेत्रहीन, कृश, और रोगी मनुष्य की रक्षा और चिकित्सा कर सकें। एवं आग्नेय सोम्य पदार्थ सूर्य की दो किरणें या विद्युत् की दो तरङ्गों द्वारा उनकी रक्षा की जा सके, ऐसे साधनों का आविष्कार करें ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्राणसाधना व स्वास्थ्य

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अमाजुरः) = शरीर रूप गृह में [अमा] जीर्ण होनेवाले के चिद् भी युवम् - हे प्राणापानो ! आप दोनों (भगः) = ऐश्वर्य (भवथः) = होते हैं । प्राणापान की शक्ति के अभाव में मनुष्य इस शरीर में जीर्ण हो जाता है, प्राणापान ही उसे स्वास्थ्य का ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। इस वाक्य का यह अर्थ भी ठीक ही है कि आपके अभाव में शक्ति के न होने से घर पर पड़े-पड़े ही जीर्ण हो जानेवाले पुरुष को भी आप इस योग्य बनाते हो कि वह देशदेशान्तर में जाकर ऐश्वर्य का कमानेवाला बने । [२] (अनाशोः चित्) = जो खा भी नहीं सकता था उसके भी आप (अवितारा) = रक्षक होते हो । (अपमस्य चित्) = उस व्यक्ति के भी आप रक्षक होते हो जो स्वास्थ्य की बड़ी हीन [अपम] अवस्था को प्राप्त हो गया है । [३] हे (नासत्या) = नासिका प्रदेश में निवास करनेवाले [वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत्] अथवा [न असत्यौ] सब असत्यों व बुराइयों को दूर करनेवाले प्राणापानो! (युवं इत्) = आपको ही अन्धस्य (चित्) = दृष्टिशक्ति से रहित का (कृशस्य चित्) = अत्यन्त दुर्बल अवस्था को प्राप्त हुए हुए का तथा (रुतस्य चित्) = [brokem to pieces] युद्धादि में भग्नास्थि पुरुष का भी (भिषजा) = वैद्य (आहुः) = करते हैं । प्राणापान की शक्ति की वृद्धि से दृष्टिशक्ति ठीक होती है, कृशता दूर होकर शरीर को उचित सौन्दर्य प्राप्त होता है और अस्थि आदि उत्पन्न भंग भी शीघ्र ठीक हो जाता है। बालक का अस्थिभंग वृद्ध के अस्थिभंग की अपेक्षा अतिशीघ्र ठीक हो जाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान की शक्ति की वृद्धि से ही पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त होता है और मनुष्य ऐश्वर्य सम्पन्न हो पाता है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे असत्यज्ञानाचरणरहितौ सद्वैद्यौ  ! “अश्विनौ सद्वैद्यौ” [संस्कारविधिः] अविनश्वराग्नेयसोम्यौ पदार्थौ “नासत्याभ्यां नित्याभ्यामग्निजलाभ्याम्” [ऋ० १।२०।३ दयानन्दः] (युवम्) युवाम् (अमाजुरः भगं चित्) गृहे वर्तमानस्य गृहस्थस्य भगस्य भजनीयस्य शरीरस्य ‘विभक्तिव्यत्ययः’ तथा (अनाशोः अपमस्य चित् अवितारा भवथः) अभोक्तुर्भोजनकरणेऽशक्तस्य रक्तादिधातुक्षीणस्यापि रक्षितारौ भवथः (अन्धस्य चित्-कृशस्य चित्-रुतस्य चित्-युवां भिषजा-आहुः) दृष्टिहीनस्यापि दुर्बलस्यापि रुग्णस्यापि “रुतस्य रुग्णस्य-अत्र पृषोदरादित्वात्-जलोपः [यजु० १६।४९ दयानन्दः] युवां वैद्यौ-वैद्यसमौ कथयन्ति विद्वांसः ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Ashvins, you are the hope and inspiration of the bed-ridden home-confined old person. You are saviours of the debilitated and the weakest persons who are unable to eat and move. O lovers and observers of the truth and law of nature, you bring light for the blind, strength for the anaemic and health for the chronic sufferers. That is what people call you, “saviours of life”.