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चो॒दय॑तं सू॒नृता॒: पिन्व॑तं॒ धिय॒ उत्पुरं॑धीरीरयतं॒ तदु॑श्मसि । य॒शसं॑ भा॒गं कृ॑णुतं नो अश्विना॒ सोमं॒ न चारुं॑ म॒घव॑त्सु नस्कृतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

codayataṁ sūnṛtāḥ pinvataṁ dhiya ut puraṁdhīr īrayataṁ tad uśmasi | yaśasam bhāgaṁ kṛṇutaṁ no aśvinā somaṁ na cārum maghavatsu nas kṛtam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

चो॒दय॑तम् । सू॒नृताः॑ । पिन्व॑तम् । धियः॑ । उत् । पुर॑म्ऽधीः । ई॒र॒य॒त॒म् । तत् । उ॒श्म॒सि॒ । य॒शस॑म् । भा॒गम् । कृ॒णु॒त॒म् । नः॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । सोम॑म् । न । चारु॑म् । म॒घव॑त्ऽसु । नः॒ । कृ॒त॒म् ॥ १०.३९.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:39» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे अध्यापक-उपदेशको ! या विद्युत् की शुष्क और आर्द्र धाराओ ! (सूनृताः-चोदयतम्) अपनी वाणियों को या उषाज्योतियों को प्रेरित करो (धियः पिन्वतम्) बुद्धियों या कर्मों को बढ़ाओ (पुरन्धीः-उत् ईरयतम्) बहुत प्रज्ञानवाली बुद्धियों को खूब बढाओ (तत्-उश्मसि) इन तीनों को हम चाहते हैं (नः-यशसं भागं कुरुतम्) हमारे यशोरूप सदाचारमय अधिकार का सम्पादन करो (मघवत्सु सोमं न चारुं नः-कृतम्) अध्यात्म-यज्ञवालों या ऐश्वर्यवालों में सुन्दर चन्द्रमा की भाँति पुष्कल ऐश्वर्य प्रदान करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - आध्यापक और उपदेशक हमारे अन्दर अपने उपदेश से बुद्धियों का विकास करते हैं। श्रेष्ठकर्म में प्रवृत्त करते हैं। हमें अपने मानवीय जीवनभाग सदाचार की प्रेरणा देते हैं और सुन्दर ऐश्वर्य को प्रदान करते है और विद्युत् की दो धाराएँ हमारे बुद्धिविकास का कारण बनती हैं। विशेष क्रिया द्वारा ऐश्वर्य भी प्राप्त कराती हैं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उत्तम जीवन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अश्विना) = अश्विनी देवो, प्राणापानो! (सूनृताः चोदयतम्) = सूनृत वाणियों को हमारे में प्रेरित करिये। इन प्राणों की साधना से हमारे में अशुभ बोलने की वृत्ति न रहे, हम जब बोलें सूनृत वाणी ही बोलें। वह वाणी (सु) = उत्तम हो, (ऊन्) = दुःखों का परिहाण करनेवाली हो तथा (ऋत) = सत्य हो। [२] हे अश्विनी देवो! आप (धियः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों को (पिन्वतम्) = [पूरयतम्] हमारे में पूरित करिये। हम कर्मशील हों और हमारे कर्म समझदारी से किये जायें। (उत) = और इसी दृष्टिकोण से आप हमारे में (पुरन्धीः) = [बह्वीः प्रज्ञा:] पालक व पूरक बुद्धियों को (ईरयतम्) = उद्गत करिये। हमारी बुद्धि सदा पालनात्मक व पूरणात्मक दृष्टिकोण से सोचनेवाली हो । [३] (तद् उश्मसि) = सो हम यही चाहते हैं कि [ क] हम सूनृत वाणी बोलें, [ख] ज्ञानपूर्वक कर्मों को करें और [ग] पालक व पूरक बुद्धियों से युक्त हों। इस सब को प्राप्त करने के लिये हे (अश्विना) = प्राणापानो! (यशसं भागम्) = यशस्वी - यश के कारणभूत, भजनीय धन को (न:) = हमारे लिये (कृणुतम्) = करिये । भजनीय धन वही है जो कि [ क ] सुपथ से कमाया जाए तथा [ख] यज्ञों में विनियुक्त होकर यज्ञशेष के रूप में ही सेवित हो । [४] हे प्राणापानो! आप (नः) = हमारे (मघवत्सु) = ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करनेवाले पुरुषों में (सोमं न) = सोम की तरह (चारुम्) = [चारु: चरते: नि० ८।१५] क्रियाशीलता को (कृतम्) = उत्पन्न करिये । वे सोम [वीर्य] का रक्षण करते हुए ओजस्वी बनें और क्रियाशील हों।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- 'सूनृत वाणी, धी, पुरन्धी, यशस्वी धन, सोम - वीर्य, व क्रियाशीलता' ये चीजें मिलकर जीवन को उत्तम बनाती हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे अध्यापकोपदेशकौ ! युवां विद्युतः शुष्कार्द्रधारे वा (सूनृताः चोदयतम्) स्वाः वाणीः “सूनृता वाङ्नाम” [निघ० १।११] उषसं ज्योतिषं वा “सूनृता उषोनाम” [निघं० १।८] प्रेरयतम् (धियः-पिन्वतम्) बुद्धीः-वर्धयतं कर्माणि वा प्रवर्धयतम् “धीः कर्मनाम” [निघ २।१] (पुरन्धीः-उदीरय-तम्) बहुप्रज्ञानवतीः-बुद्धीः “याः पुरूणि विज्ञानानि दधाति ताः प्रज्ञाः” [ऋ० ४।२२।१० दयानन्दः] बहुविधकर्मप्रवृत्तीः उद्वर्धयतम् (तत् उश्मसि) तदेतत्त्रयं वयं वाञ्छामः (नः-यशसं भागं कुरुतम्) अस्माकं यशोरूपं सदाचारमयमधिकारं कार्यं सम्पादयतम् (मघवत्सु सोमं न चारुं नः-कृतम्) अस्मासु अध्यात्मयज्ञवत्सु-ऐश्वर्यवत्सु वा सुन्दरं चन्द्रमिव ‘पुष्कलमैश्वर्यं कुरुतम् विभक्तिव्यत्ययः’ ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Ashvins, inspire, energise and raise the voice of truth and divine law of eternity. Nourish, strengthen and advance the intelligence and will of humanity for action. Raise up, strengthen and confirm the principles and policies which govern and sustain the values of human institutions. That is what we love and desire of you. Create and confirm our share of honour and excellence in the affairs of human society. Vest the beauty and grace of sweetness and culture for our sake among the men of wealth and power.