पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अश्विना) = अश्विनी देवो, प्राणापानो! (सूनृताः चोदयतम्) = सूनृत वाणियों को हमारे में प्रेरित करिये। इन प्राणों की साधना से हमारे में अशुभ बोलने की वृत्ति न रहे, हम जब बोलें सूनृत वाणी ही बोलें। वह वाणी (सु) = उत्तम हो, (ऊन्) = दुःखों का परिहाण करनेवाली हो तथा (ऋत) = सत्य हो। [२] हे अश्विनी देवो! आप (धियः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों को (पिन्वतम्) = [पूरयतम्] हमारे में पूरित करिये। हम कर्मशील हों और हमारे कर्म समझदारी से किये जायें। (उत) = और इसी दृष्टिकोण से आप हमारे में (पुरन्धीः) = [बह्वीः प्रज्ञा:] पालक व पूरक बुद्धियों को (ईरयतम्) = उद्गत करिये। हमारी बुद्धि सदा पालनात्मक व पूरणात्मक दृष्टिकोण से सोचनेवाली हो । [३] (तद् उश्मसि) = सो हम यही चाहते हैं कि [ क] हम सूनृत वाणी बोलें, [ख] ज्ञानपूर्वक कर्मों को करें और [ग] पालक व पूरक बुद्धियों से युक्त हों। इस सब को प्राप्त करने के लिये हे (अश्विना) = प्राणापानो! (यशसं भागम्) = यशस्वी - यश के कारणभूत, भजनीय धन को (न:) = हमारे लिये (कृणुतम्) = करिये । भजनीय धन वही है जो कि [ क ] सुपथ से कमाया जाए तथा [ख] यज्ञों में विनियुक्त होकर यज्ञशेष के रूप में ही सेवित हो । [४] हे प्राणापानो! आप (नः) = हमारे (मघवत्सु) = ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करनेवाले पुरुषों में (सोमं न) = सोम की तरह (चारुम्) = [चारु: चरते: नि० ८।१५] क्रियाशीलता को (कृतम्) = उत्पन्न करिये । वे सोम [वीर्य] का रक्षण करते हुए ओजस्वी बनें और क्रियाशील हों।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- 'सूनृत वाणी, धी, पुरन्धी, यशस्वी धन, सोम - वीर्य, व क्रियाशीलता' ये चीजें मिलकर जीवन को उत्तम बनाती हैं।