पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि- हे इन्द्र-शत्रुओं का संहार करनेवाले इन्द्र ! (अहम्) = मैं (हि) = निश्चय से (त्वाम्) = तुझे (स्ववृजम्) = स्वयमेव शत्रुओं का वर्जन व छेदन करनेवाला (शुश्रवा) = सुनता हूँ । (अनानुदम्) = तुझे मैं अनपेक्षित बलानुप्रदान जानता हूँ । तुझे किसी दूसरे से शक्ति के प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं होती । [२] हे (वृषभ) = शक्तिशाली व सुखों का वर्षण करनेवाले इन्द्र ! तुझे मैं (रध्रचोदनम्) = आराधक को प्रेरणा देनेवाले के रूप में सुनता हूँ [रध्र = worshi ppring] जो भी तेरी आराधना करता है उसे आप उत्तम प्रेरणा देते हो । [३] (परि कुत्सात्) = चारों ओर वर्तमान अशुभ व निन्दनीय कर्ममात्र से तू अपने को (प्रमुञ्चस्व) = छुड़ा और इह यहाँ हमारे पास (आगहि) = आ । प्रभु के समीप पहुँचने का मार्ग यही है कि हम शक्तिशाली बनें, संग्राम में पराजित न हों। सब अशुभों को छोड़नेवाले बनें। [४] प्रभु कहते हैं कि (किं उ) = और क्या (त्वावान्) = तेरे जैसा व्यक्ति (मुष्कयोः बद्धः आसते) = भोग-विलास में बद्ध हुआ हुआ पड़ा रहता है। नहीं, इन्द्र को यह विलास शोभा नहीं देता। इन्द्र तो सब विलासों से ऊपर उठकर आसुर-वृत्तियों का संहार ही करता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - इन्द्र वह है जो अपनी शक्ति से शत्रुओं का छेदन करता है और जिसे कभी विलास अपने अधीन नहीं कर लेते । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि संग्राम हमारे यश का कारण होता है, [१] हम विजय को प्राप्त करानेवाले प्रभु के प्रिय हों, [२] हम आक्रान्ता शत्रुओं को पराजित करनेवाले हों, [३] संग्राम में प्रभु का स्मरण करें, [४] प्रभु कृपा से 'इन्द्र' बनें और विलास में न फँस जायें, [५] हम कामादि को युद्ध के लिये ललकारनेवाले हों और संग्राम के लिये कटिबद्ध हो जाएँ । युद्ध के लिये लकारनेवाली 'घोषा', बद्धकक्ष 'काक्षीवती' प्रस्तुत सूक्तों की ऋषिका है। वह कहती है-