पदार्थान्वयभाषाः - [१] उषा से ही प्रार्थना करते हैं कि (इयम्) = यह (रेवती) = उत्तम प्रकाशरूप धनवाली (उस्स्रा) = पापों का (उत्स्रावण) = दूरीकरण करनेवाली (प्रथमा) = हमारे जीवन में सर्वप्रथम स्थान रखनेवाली अथवा हमारे हृदयों का पवित्र भावनाओं के सञ्चार से विस्तार करनेवाली यह उषा (सनिभ्यः नः) = उत्तम संविभाग पूर्वक खानेवाले अथवा प्रभु-पूजन करनेवाले हमारे लिये (रेवत्) = ऐश्वर्य से युक्त सुदेव्यम् उत्तम दिव्यगुणों के लिये हितकर रूप में व्युच्छतु अन्धकार को दूर करनेवाली हो । उषा हमें ऐश्वर्य- सम्पन्न बनाये और ऐश्वर्य के साथ हमारे में दिव्यगुणों का सञ्चार करे। हम इस उषाकाल में प्रभु का पूजन करनेवाले हों हमारी वृत्ति सबके साथ बाँटकर खाने की हो । [२] (दुर्विदत्रस्य) = दुर्धन पुरुष के [विदत्र = धन] (मन्युम्) = क्रोध को (आरे) = अपने से दूर (धीमहि) = धारण करें। जिस प्रकार दुर्धन पुरुष क्रोध के वश हो जाते हैं, हम उस प्रकार दुर्धन न बनें। उषा हमें धन व ऐश्वर्य को प्राप्त कराये, परन्तु हम उस धन के मद में भोग-प्रवण जीवनवाले होकर क्रोध न करते रहें । [३] इन धनों का विनियोग हम यज्ञादि उत्तम कर्मों में करें। प्रतिदिन (समिधानं अग्निम्) = समिद्ध की जाती हुई अग्नि से हम (स्वस्ति) = उत्तम जीवन व कल्याण की (ईमहे) = याचना करते हैं। अग्निहोत्र से रोग दूर हों और सौमनस्य प्राप्त हो । स्वस्थ व सुमना बनकर हम स्वस्ति व उत्तम जीवनवाले हों ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - उषा हमें धन व दिव्यगुण प्राप्त कराये। हम धनी हों, परन्तु क्रोधादि से कभी अभिभूत न हों। धनों का विनियोग यज्ञों में करें।