पदार्थान्वयभाषाः - [१] (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (मही) = महनीय हैं, ये दोनों महत्त्वपूर्ण हैं । (मातरा) = ये हमारे जीवन का निर्माण करनेवाले हैं। शरीर व मस्तिष्क से ही मनुष्य बनता है, (अनागसो) = निष्पाप मनुष्य आदर्श मनुष्य वही है जो स्वस्थ व सशक्त शरीर के साथ दीप्त मस्तिष्कवाला है। ये दोनों मस्तिष्क व शरीर (अद्य) = आज (नः) = हमें (सुविताय) = उत्तम आचरण व उत्तम आचरण से जनित सुख के लिये (त्रायेताम्) = रक्षित करें। शरीर की शक्ति व मस्तिष्क का ज्ञान हमारे आचरण को सुन्दर बनायें, जिससे हम अपने जीवन में सुखी हो सकें। [२] (उच्छन्ती) = अन्धकार को दूर करती हुई (उषा) = प्रातः काल की वेला (अघम्) = पाप को (अपबाधताम्) = हमारे से दूर करे। उषा होती है और अन्धकार दूर हो जाता है, इसी प्रकार यह उषा हमारे जीवन में भी हृदयान्धकार को दूर करनेवाली हो और परिणामतः हमारे जीवन में से पाप विनष्ट हो जाएँ। [३] इस उषाकाल में (समिधानम्) = दीप्त की जाती हुई (अग्निम्) = इस अग्निहोत्र की अग्नि से (स्वस्ति) = उत्तम जीवन को, कल्याण को (ईमहे) = हम माँगते हैं, हम उष:काल में अग्निहोत्र की अग्नि को उबुद्ध करनेवाले हों। यह प्रतिदिन उद्बुद्ध की जाती हुई अग्नि हमारे सब ज्ञात-अज्ञात रोगों को दूर करती हुई, हमारा कल्याण करे।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारा स्वस्थ शरीर वही प्रमस्तिष्क हमें निष्पाप बनाये। उषा हमारे पाप को दूर करे । समिद्ध अग्नि हमें 'स्वस्ति' प्राप्त कराये।