पदार्थान्वयभाषाः - [१] (मातृन् सिन्धून्) = हमारे जीवन में निर्माण का कार्य करनेवाले स्यन्दनशील रेतः कणों से (दिवः पृथिव्योः) = द्युलोक व पृथिवीलोक के, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर के (अवः) = रक्षण का (आवृणीमहे) = हम वरण व याचन करते हैं । ये रेतःकण स्यन्दनशील हैं, बहने के स्वभाववाले हैं। इनका रक्षण न किया जाए तो ये स्वभावतः नीचे की ओर जानेवाले होते हैं और तब शरीर में नाना प्रकार के रोग व्याप्त हो जाते हैं तथा मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि बुझ जाती है। रेतःकण, सुरक्षित होने पर शरीर को रोगों का शिकार नहीं होने देते और मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि को दीप्त रखते हैं। इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि हम इन रेतः कणों से शरीर व मस्तिष्क के रक्षण की याचना करते हैं। ये रेतःकण ही वस्तुतः हमारे शरीर में सब आवश्यक तत्त्वों का निर्माण करनेवाले हैं । [२] इन्हीं स्यन्दनशील रेतः कणों से हम (शर्यणावतः) = [शर्य = हिंसा] हिंसा व विनाश के कारणभूत (पर्वतान्) = अविद्या पर्वतों को [ पञ्चपर्वा अविद्या को ] आवृणीमहे [ keep away ] अपने से दूर रखते हैं। एक रेतः कणों के रक्षण से [क] शरीर नीरोग बनता है, [ख] ज्ञानाग्नि दीप्त होती है, [ग] विनाश के कारणभूत अविद्या के पर्वत उच्छिन्न हो जाते हैं। [३] अब अज्ञान को दूर करके (सूर्यं उषासम्) = सूर्य व उषा से हम (अनागास्त्वम्) = निष्पापता को (ईमहे) = चाहते हैं। 'सूर्य' 'निरन्तर गति' का प्रतीक है और उषा 'अन्धकार के दहन' का। हम निरन्तर गतिशील बनकर तथा अविद्यान्धकार का दहन करके निरपराध बनते हैं। [४] (सुवानः सोमः) = सात्त्विक अन्नों से उत्पन्न किया जाता हुआ सोम [वीर्य] (अद्य) = आज (नः) = हमारा (भद्रं कृणोतु) = कल्याण करे । सोम के रक्षण से हमारा सब प्रकार से कल्याण ही कल्याण हो । शरीर में व्याधियाँ न हों, मन में आधियाँ न हों तथा मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि की दीप्ति सदा बनी रहे ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - शरीर में रेतः : कण ही सब आवश्यक तत्त्वों का निर्माण करनेवाले हैं। इनके रक्षण से ही हमारा जीवन अविद्यान्धकार व पापों से शून्य बनेगा ।