इन्द्रियों की पवित्रता व पवित्र जीवन
पदार्थान्वयभाषाः - [१] मनुष्य अपनी अल्पज्ञता से कई बार इस संसार में ऐसा उलझ जाता है कि उसे परलोक का ध्यान ही नहीं रहता। उपनिषद् में इन्हीं के लिये कहा गया है कि 'अयं लोकोनास्ति पर इति मानी, पुनः पुनर्वशमापद्यते मे', 'यही लोक है, परलोक नहीं है' ऐसा माननेवाला फिर-फिर मृत्युचक्र में पड़ता है। वेद कहता है कि यह उनकी धारणा गलत है (न एतावत्) = केवल यही लोक नहीं है । (एना) = [एनेभ्यः] इन दृश्यमान लोक-लोकान्तरों से (परः) = उत्कृष्ट (अन्यत्) = दूसरा आत्मतत्त्व (अस्ति) = है । (उक्षा) = वस्तुतः वह आत्मतत्त्व ही इस संसार - शकट का वहन करनेवाला है, सब पर सुखों का सेचन करनेवाला है और (सः) = वह ही (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथ्वीलोक को, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को (बिभर्ति) = धारण करता है । [२] आत्मतत्त्व को 'स्व' कहते हैं, इस आत्मतत्त्व का धारण 'स्वधा' है । (स्वधावान्) = इस आत्मतत्त्व के धारणवाला व्यक्ति (त्वचम्) = [Touch] इन्द्रियों के विषयों के साथ सम्पर्क को मात्रा स्पर्शों को (पवित्रं कृणुत) = पवित्र कर लेता है, अर्थात् यह इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण जीवन की उन्नति के लिये ही करता है। यह उन सम्पर्कों में आसक्त नहीं हो जाता । [३] यह वह समय होता है (यद्) = जब कि (ईम्) = निश्चय से (हरितः) = ये इन्द्रियरूप (अश्व) = इसके लिये (सूर्यम्) = ज्ञान के सूर्य को उसी प्रकार (वहन्ति) = प्राप्त कराते हैं (न) = जैसे कि (हरितः) = सूर्य-किरण रूप अश्व (सूर्यम्) = सूर्य को (वहन्ति) = इस पृथ्वी पर प्राप्त कराते हैं, अर्थात् विषयों में अनासक्त इन्द्रियाँ ज्ञानवृद्धि का कारण बनती हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - इस भौतिक संसार से परे इसका संचालक आत्मतत्त्व भी है। इस आत्मतत्त्व का ज्ञान हमारे जीवनों को पवित्र करता है। इस जीवन में इन्द्रियाँ हमें ज्ञान के सूर्य को प्राप्त करानेवाली होती हैं ।