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किं स्वि॒द्वनं॒ क उ॒ स वृ॒क्ष आ॑स॒ यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः । सं॒त॒स्था॒ने अ॒जरे॑ इ॒तऊ॑ती॒ अहा॑नि पू॒र्वीरु॒षसो॑ जरन्त ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kiṁ svid vanaṁ ka u sa vṛkṣa āsa yato dyāvāpṛthivī niṣṭatakṣuḥ | saṁtasthāne ajare itaūtī ahāni pūrvīr uṣaso jaranta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

किम् । स्वि॒त् । वन॑म् । कः । ऊँ॒ इति॑ । सः । वृ॒क्षः । आ॒स॒ । यतः॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । निः॒ऽत॒त॒क्षुः । स॒न्त॒स्था॒ने इति॑ स॒म्ऽत॒स्था॒ने । अ॒जरे॒ इति॑ । इ॒तऊ॑ती॒ इती॒तःऽऊ॑ती । अहा॑नि । पू॒र्वीः । उ॒षसः॑ । ज॒र॒न्त॒ ॥ १०.३१.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:31» मन्त्र:7 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:28» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (किं स्वित्-वनम्) वह वन कौनसा है (कः-उ सः-वृक्षः-आस) और कौन वह वृक्ष है (यतः-द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः) जिससे कि द्युलोक और पृथ्वीलोक को रचा है। (सन्तस्थाने) जो कि सम्यक् संस्थित (अजरे) जरारहित (इत-ऊती) इस प्राणी लोक से सुरक्षित है (अहानि पूर्वीः-उषसः-जरन्त) जिससे मध्य में वर्त्तमान दिन-अहोरात्र और पूर्व से चली आई उषाएँ परम्परा से प्राप्त प्रातर्वेलाएँ जीर्ण हो जाती हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने अपने व्यापक तथा प्रकाशक स्वरूप से सृष्टि के प्रमुख द्युमण्डल और पृथ्वीमण्डल को रचा है और इसके बीच में दिन-रातों तथा प्रभातवेलाओं को प्रकट किया, जो अन्य प्राणी आदि वस्तुओं की जीर्णता के साथ जीर्णता को प्राप्त होती रहती हैं ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'वन-वृक्ष'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु के नाम तीनों लिङ्गों में होते हैं। सो 'किम्' शब्द भी तीनों ही लिङ्गों में प्रभु का प्रतिपादक है। इसकी मूलभावना 'आनन्दमयता' की है। वे (किम्) = आनन्दमय प्रभु (स्विद्) = निश्चय से (वनम्) = उपासनीय हैं 'तद्धि तद्वनं नाम, तद्वनमित्युपासितात्यम्' । उपासनीय होने से प्रभु का नाम ही 'वनम्' हो गया है 'वन संभक्तौ'। (उ) = और (स) = वे (कः) = आनन्दमय प्रभु (वृक्षः) = [ वृश्चति इति ] हमारे (भव) = बन्धनों को काटनेवाले हैं। 'उपासना' कारण है, 'भव-बन्धनों का काटना उसका कार्य है । इसी से उपासना का पहले तथा बन्धनच्छेद का उल्लेख पीछे हुआ है। [२] ये प्रभु वे हैं (यतः) = जिनसे (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक व पृथिवीलोक, द्युलोक से लेकर पृथिवीलोक तक सब लोक-लोकान्तर (निष्टतक्षुः) = बनाये गये हैं। ये दोनों लोक (संतस्थाने) = सम्यक्तया अपनी मर्यादा में स्थित हैं, ये डाँवाडोल हो जानेवाले व अमर्याद गतिवाले होकर नष्ट-भ्रष्ट करनेवाले नहीं हैं (अजरे) = कभी जीर्ण नहीं होते। 'पृथ्वी की उपजाऊँ शक्ति कम होती जा रही हो' ऐसी बात नहीं अथवा 'वायुमण्डल में अम्लजन की मात्रा कम होती जा रही हो' ऐसी बात भी नहीं । 'सूर्य क्षीण होता जा रहा हो' ऐसा कुछ नहीं है । सब चाक्रिक व्यवस्थाओं के कारण 'जो है' वह उतना ही बना रहता है। ये सब लोक जीर्ण होनेवाले नहीं। मनुष्य निर्मित चीजे जीर्ण होती हैं, प्रभु की सृष्टि अजीर्ण है। ये द्युलोक व पृथ्वीलोक (इत ऊती) = इस लोक से हमारा रक्षण करनेवाले हैं। यदि हम इनका ठीक प्रयोग करते हैं तो हमारा भौतिक संसार ठीक बना रहता है, शरीर स्वस्थ रहता है । [३] इस प्रकार स्वस्थ शरीरवाले बनकर ये ज्ञानी पुरुष (अहानि) = जीवन के प्रत्येक दिन (पूर्वीः उषसः) = उषाकाल के पूर्वभागों में [early in the morning] जरन्त उस 'वन व वृक्ष' नामक प्रभु का स्तवन करते हैं। इस प्रभु ने ही तो उन द्युलोक व पृथिवीलोक को बनाया है जिनके कारण हमारी ऐहिक उन्नति बड़ी सुन्दरता से हो पाती है। इस प्रभु के स्तवन से अध्यात्म उन्नति होती है और हमारे बन्धनों का उच्छेद होता है। प्रकृति ऐहिक उन्नति में सहायक होती है तो प्रभु पारलौकिक व अध्यात्म उन्नति का कारण बनते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रकृति के ठीक प्रयोग से हम इधर से अपना रक्षण करें और प्रभु-स्तवन से उधर के कल्याण को साधें । प्रभु का बनाया हुआ यह संसार हमें भौतिक स्वास्थ्य देगा और प्रभु स्मरण अध्यात्म-स्वास्थ्य का कारण बनेगा ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (किं स्वित्-वनम्) किं खलु वनमरण्यम् (कः उ सः-वृक्षः-आस) तत्रत्यः को हि स वृक्षः अस्ति (यतः द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः) यतो हि द्युलोकं पृथिवीलोकं च निष्पादितवान् परमात्मा, बहुवचनमादरार्थम्, ये च द्यावापृथिव्यौ (सन्तस्थाने) सम्यक् स्थिरे (अजरे) जरारहिते सामान्येन नाशरहिते (इतः-ऊती) इतो लोकात्-प्राणिलोकात् सुरक्षिते स्तः (अहानि पूर्वीः-उषसः-जरन्त) ययोर्मध्ये वर्त्तमानानि दिनानि पूर्वतः प्रवृत्ताः-उषसो जीर्णतां गच्छन्ति, इति विश्वकर्मणः परमात्मनः कर्मशिल्पं विवेच्यते ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Which is that forest, which was that tree, that material cause, from which the Vishvedevas, divine powers of lord Supreme, fashioned forth the heaven and earth sustained in cosmic order in the imperishable universe, safe and protected, which the eternal days and nights and the dawns at morning and evening proclaim and adore.