पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (आपः) = रेतः कणो ! (यः) = जो भी युवक (वृताभ्यः) = वरण किये गये, स्वीकार किये गये (वः) = आपके लिये (लोकम्) = शरीर में स्थान को (अकृणोत्)= बनाता है, अर्थात् जो आपको शरीर में ही सुरक्षित करता है और (यः) = जो (वः) = आपको (मह्या:) = इस पृथिवी के (अभिशस्ते) = हिंसन से, अर्थात् पार्थिव भोगों में आसक्ति के कारण विनाश से (अमुञ्चत्) = मुक्त करता है, पार्थिव भोगों में फँसकर कभी तुम रेतः कणों का नाश नहीं होने देता । [२] (तस्मा) = [ तस्मै] उस (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (मधुमन्तम्) = अत्यन्त माधुर्यवाली (ऊर्मिम्) = तरंग को (प्रहिणोत) = प्रकर्षेण प्राप्त कराओ, अर्थात् इसके जीवन को उत्साह सम्पन्न करो, परन्तु इस उत्साह से उसका जीवन माधुर्यमय हो । इसमें स्फूर्ति हो, स्फूर्ति के साथ मधुरता हो। यह माधुर्य व स्फूर्ति से युक्त होकर सब कार्यों को करनेवाला हो। यह ऊर्मि (देवामादनम्) = देवों को हर्षित करनेवाली हो, अर्थात् इसके इस मधुर उत्साह को देखकर इसके माता, पिता, आचार्य आदि सब देव प्रसन्न हों। (अनात) = इसकी यह मधुमान् ऊर्मि उस देवाधिदेव परमात्मा को भी प्रसन्न करनेवाली हो, इसके कारण यह प्रभु का भी प्रिय बने ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- जो रेतः कणों का रक्षण करता है वह रक्षित रेतः कणों के कारण मधुर व उत्साह सम्पन्न जीवनवाला होता है, इससे मधुर उत्साह सम्पन्न जीवन से यह सब देवों को प्रीणित करनेवाला होता है ।