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यो अ॑नि॒ध्मो दीद॑यद॒प्स्व१॒॑न्तर्यं विप्रा॑स॒ ईळ॑ते अध्व॒रेषु॑ । अपां॑ नपा॒न्मधु॑मतीर॒पो दा॒ याभि॒रिन्द्रो॑ वावृ॒धे वी॒र्या॑य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo anidhmo dīdayad apsv antar yaṁ viprāsa īḻate adhvareṣu | apāṁ napān madhumatīr apo dā yābhir indro vāvṛdhe vīryāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः । अ॒नि॒ध्मः । दीद॑यत् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तः । यम् । विप्रा॑सः । ईळ॑ते । अ॒ध्व॒रेषु॑ । अपा॑म् । न॒पा॒त् । मधु॑ऽमतीः । अ॒पः । दाः॒ । याभिः॑ । इन्द्रः॑ । व॒वृ॒धे । वी॒र्या॑य ॥ १०.३०.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:30» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः-अप्सु-अन्तः) राजपदस्थ जो राजा प्रजाओं के मध्य में (अनिध्मः-दीदयत्) रात-दिन की अपेक्षा करके अर्थात् निरन्तर अपने गुण प्रभावों से प्रकाशमान रहता है (यं विप्रासः-अध्वरेषु ईळते) जिसको ऋत्विज् राजसूययज्ञ के अवसरों में प्रशंसित करते हैं, प्रसिद्ध करते हैं (अपां नपात्) वह तू प्रजाओं का रक्षक राजन् ! (मधुमतीः-अपः-दाः) मधुरस्वभाववाली अनुशासन में रहनेवाली प्रजाओं के लिये सुख देता रह (याभिः-इन्द्रः-वीर्याय वावृधे) जिन प्रजाओं के द्वारा पराक्रम-प्राप्ति के लिये बढ़ा करता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - स्वदेशी जनों में जो जन अपने गुणप्रभावों से प्रसिद्ध होता है, पुरोहितादि ऋत्विज् लोग राजसूय यज्ञ द्वारा राजपद पर उसे बिठाते हैं। प्रजाजनों द्वारा राजा बल पराक्रम को प्राप्त होता है, उसे सदा प्रजा को सुखी रखना चाहिये ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अनिध्म अग्नि

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो प्रभु रूप अग्नि (अनिध्मः) = काष्ठों के बिना प्रज्वलित होनेवाली है और (अप्सुं अन्तः) = प्रजाओं के हृदयों में [आपो नारा इति प्रोक्ताः आपो वै नर सूनवः] (दीदयत्) = देदीप्यमान है । (यम्) = जिसको (विप्रासः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले विद्वान् लोग (अध्वरेषु) = हिंसा रहित कर्मों में (ईडते) = उपासित करते हैं। वह (अपां नपात्) = हमारे रेतः कणों को न नष्ट होने देनेवाला है। [२] यह 'अपां न पात्' प्रभु (मधुमती:) = हमारे जीवनों को मधुर बनानेवाले (अपः) = रेतः कणों को (दाः) = हमारे लिये देते हैं । वस्तुतः रेतःकणों के रक्षण से शरीर ही स्वस्थ बनता हो यह बात नहीं है, इनके रक्षण के परिणाम रूप मन भी स्वस्थ बनता है और मन में किसी प्रकार के राग- द्वेष की भावना उत्पन्न नहीं होती, हमारे मन बड़े मधुर बने रहते हैं । [३] ये रेतःकण वे हैं (याभिः) = जिनसे (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (वीर्याय) = शक्तिशाली कर्मों के करने के लिये (वावृधे) = बढ़ता है । वीर्य की स्थिरता ही मनुष्य के अन्दर उत्साह आदि गुणों का संचार करती है और उसे शक्तिशाली कर्मों को करने के लिये समर्थ करती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु अग्नि हैं, इनके उपासन से वीर्य का रक्षण होकर हम आगे बढ़ने के योग्य होते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः-अप्सु-अन्तः) यो राजपदस्थो राजा प्रजासु मध्ये (अनिध्मः-दीदयत्) अहोरात्रमनपेक्षमाणो निरन्तरमित्यर्थः “अहोरात्राणीध्मः” [काठ० ६।६]  प्रकाशते (यं विप्रासः-अध्वरेषु-ईळते) यं खल्वृत्विजो राजसूययज्ञावसरेषु प्रशंसन्ति (अपां नपात्) प्रजाजनानां न पातयिता तेषां रक्षकः सः (मधुमतीः-अपः दाः) मधुमतीभ्योऽद्भ्यः, चतुर्थ्यर्थे द्वितीया व्यत्ययेन मधुरस्वभाववतीभ्यः प्रजाभ्यः सुखं देहि-ददासि (याभिः-इन्द्रः-वीर्याय वावृधे) याभिः प्रजाभिः सह पराक्रमकरणाय राजा भृशं वर्धते ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O sun who burn and shine in space without fuels of fire, whom priests and scientists serve and adore in yajna, who never allow liquid energies of the world to exhaust, pray give us the honey sweets of liquid energies by which Indra, ruler of the world order on earth, may rise to strength and accomplish great deeds for humanity.