पदार्थान्वयभाषाः - [१] (उशती:) = हमारे हित की कामना करते हुए (आपः) = रेतः कण (इदं बर्हिः) = इस वासनाशून्य हृदय को (आ आग्मन्) = सर्वथा प्राप्त हुए हैं । [२] (देवयन्ती:) = हमारे रोगादि शत्रुओं को जीतने की कामना करते हुए ये रेतःकण (अध्वरे) = इस हिंसारहित जीवनयज्ञ में (वि असदन्) = निश्चय से शरीर के अन्दर स्थित हुए हैं। जब जीवन क्रूर भावों से शून्य होता है तो इन रेतःकणों का रक्षण सुगम होता है। सुरक्षित रेतःकण रोगकृमियों को नष्ट करते हैं और हमें स्वस्थ बनाते हैं । [३] इसलिए (अध्वर्यवः) = अध्वर - यज्ञ को अपने साथ जोड़नेवाले व्यक्तियों इन्द्राय उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये (सोमं सुनुत) = सोम का, इन रेतः कणों का अभिषव करो। इनको अपने शरीर में उत्पन्न करो। जिससे (वः) = तुम्हारे लिये (देवयज्या) = उस देव के साथ संगतिकरण, अर्थात् उस प्रभु की प्राप्ति (उ) = निश्चय से (सुशका अभूत्) = सुगमता से हो सकनेवाली हो। इस सोम के, वीर्य के रक्षण से उस सोम की, प्रभु की प्राप्ति सुगम हो ही जाती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित रेतःकण रोगों को नष्ट करते हैं और हमारे लिये प्रभु प्राप्ति को सुगम कर देते हैं। सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि 'हम यात्री हैं और ब्रह्म प्राप्ति हमारा लक्ष्य है '[१] प्रभु प्राप्ति के लिये हम हिंसा से ऊपर उठें और यज्ञशेष का सेवन करें, [२] प्रभु का उपासन हमें वीर्यरक्षण में समर्थ करता है, [३] इस वीर्यरक्षण से हमारा जीवन मधुर बनता है, [४] वीर्यरक्षण से हम शरीर व मन के दृष्टिकोण से स्वस्थ बनते हैं, [५] रेतः कणों का रक्षण बुद्धि को तीव्र करता है, [६] जीवन को यह उत्साह सम्पन्न बनाता है, [७] इससे हम ज्ञानी व निर्मल वृत्तिवाले बनते हैं, [८] एवं वीर्यरक्षण 'त्रितन्तु' है, 'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों की शक्तियों का विस्तार करता है, [९] यह वीर्यरक्षण इहलोक व परलोक दोनों को सुन्दर बनाता है, [१०] ये रेतःकण सुख के देनेवाले हैं, [११] ये 'क्रतु' व 'अमृत' को धारण करते हैं, [१२] ये घृत पयस् व मधु को अपने में लिये हुए हैं, [१३] रेवती हैं, [१४] इनके द्वारा प्रभु प्राप्ति सुगमता से हो पाती हैं, [१५] हमें देवों से दिये जानेवाला ज्ञान प्राप्त हो ।