पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्रभो ! आप (सूरः न) = सूर्य के समान हैं, 'आदित्यवर्णम्' शब्द से आपका स्मरण होता है। सूर्य की तरह ही आप हमारे हृदयाकाशों को प्रकाशित करनेवाले तथा कर्मों में प्रेरित करनेवाले हैं। आप (अर्थम्) = धर्म, अर्थ, काम व मोक्षरूप पुरुषार्थों की (प्रेरय) = प्रेरणा दीजिये तथा इन पुरुषार्थों के द्वारा (पारं) = प्रेरय - इस भवसागर व अश्मन्वती नदी के पार प्राप्त कराइये । धर्मपूर्वक धन को कमाकर उचित आनन्दों का सेवन करते हुए ही हम मोक्ष के अधिकारी हो सकते हैं। यही मार्ग है, भवसागर को तैरने का । [२] प्रभु उन व्यक्तियों को भवसागर से तैराते हैं (ये) = जो (अस्य) = इस प्रभु की (कामम्) = कामना को, इच्छा को, (जनिधा इव) = विकास को धारण करनेवाले की तरह (ग्मन्) = प्राप्त होते हैं, अर्थात् प्रभु की कामना के अनुसार कर्मों को करते हैं। प्रभु ने वेद में जिस प्रकार आदेश दिया है, उसी प्रकार जो अपना आचरण बनाते हैं वे ही व्यक्ति प्रभु के प्रिय होते हैं और इन्हें ही प्रभु भवसागर से तैरानेवाले होते हैं। ये व्यक्ति की (जनि) = विकास का (धा) = धारण करते हैं । 'जनिधा' का अर्थ पत्नी का धारण करनेवाला, अर्थात् पति भी है। यहाँ 'परीमे गाम् अनेषत' इन वेद शब्दों के अनुसार वेदवाणी से परिणय करनेवाले ये वेदवाणी के पति ही 'जनिधा' हैं । वेदोपदिष्ट कर्मों के करने से ये सचमुच 'जनिधा' होते हैं । [३] हे (तुविजात) = इस महान् ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले, (इन्द्र) = प्रभो ! ये (च नरः) = और जो लोग (ते) = आपकी (पूर्वीः) = हमारे जीवनों का पूरण करनेवाली (गिरः) = वेदवाणियों को (अन्नैः) = सात्त्विक अन्नों के सेवन के द्वारा, शुद्ध अन्तःकरणवाले होकर (प्रतिशिक्षन्ति) = एक-एक करके सीखते हैं, उन्हें आप पारं प्रेरय= भवसागर के पार प्राप्त कराइये ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम सात्त्विक अन्नों के सेवन से वेदवाणियों को शुद्ध अन्तःकरणों से समझें । वेदोपदिष्ट प्रभु की इच्छाओं के अनुसार कार्य करें। प्रभु हमें भवसागर से पार उतारेंगे ।