प्रभु जैसे बनकर प्रभु को पाना
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (कद् उ) = कब निश्चय से (द्युम्नम्) = ज्योति को (करसे) = आप करते हैं। कब आपकी कृपा से मेरा जीवन ज्योतिर्मय होगा ? और कब (कया) = आनन्द को देनेवाली (धिया) = ज्ञानपूर्विका क्रियाओं से (नॄन्) = हम मनुष्यों को (त्वावतः) = अपने जैसा [ त्वत्सदृशान् सा० ] करसे करते हैं ? अर्थात् कब वह समय मेरे जीवन में आयेगा जब कि मैं ज्ञानपूर्वक क्रियाओं में एक आनन्द का अनुभव करूँगा और इन क्रियाओं के द्वारा मैं आप जैसा बनने के लिये यत्नशील होऊँगा ? प्रभु के समान दयालु व न्यायकारी बनता हुआ ही तो मैं प्रभु का सच्चा उपासक होता हूँ। (कत्) = कब (नः) = हम उपासकों को (आगन्) = आप प्राप्त होंगे ? वस्तुतः आप जैसा बनकर ही तो मैं आपको प्राप्त होने का अधिकारी होता हूँ। [२] हे (उरुगाय) = खूब ही स्तवन करने के योग्य प्रभो! आप (मित्रः न) = मित्र के समान हैं। हमारे साथ स्नेह करनेवाले [मिद् स्नेहने] तथा हमें 'प्रमीतेः जायते'-रोगों व पापों से बचानेवाले हैं । (सत्यः) = आप सत्यस्वरूप हैं। आप ही (भृत्ये) = हमारे भरण- पोषण के लिये होते हैं । आपने ही अन्नों के द्वारा हमारे भरण की व्यवस्था की है। [३] (यद्) = जो आपने यह भी अद्भुत व्यवस्था की है कि (समस्य) = सब की (मनीषा:) = बुद्धियाँ अन्ने अन्न में (असन्) = हैं। जैसा अन्न कोई खाता है वैसा ही उसकी बुद्धि बन जाती है, 'आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः ' आहार की शुद्धि पर ही अन्तःकरण की शुद्धि निर्भर करती है। इस बुद्धि के द्वारा आप हमारा रक्षण करते हैं। इस प्रकार प्रभु ने अन्न के द्वारा ही हमारे 'अन्नमय, प्राणमय, मनोमय व विज्ञानमय' कोशों के निर्माण की व्यवस्था करके हमारे पालन का सुन्दर प्रबन्ध किया है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- बुद्धि-वर्धक अन्नों का प्रयोग करते हुए हम ज्ञानपूर्वक कर्मों से प्रभु जैसा बनकर, प्रभु को प्राप्त करें।