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ए॒वा हि मां त॒वसं॑ ज॒ज्ञुरु॒ग्रं कर्म॑न्कर्म॒न्वृष॑णमिन्द्र दे॒वाः । वधीं॑ वृ॒त्रं वज्रे॑ण मन्दसा॒नोऽप॑ व्र॒जं म॑हि॒ना दा॒शुषे॑ वम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā hi māṁ tavasaṁ jajñur ugraṁ karman-karman vṛṣaṇam indra devāḥ | vadhīṁ vṛtraṁ vajreṇa mandasāno pa vrajam mahinā dāśuṣe vam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व । हि । माम् । त॒वस॑म् । ज॒ज्ञुः । उ॒ग्रम् । कर्म॑न्ऽकर्मन् । वृष॑णम् । इ॒न्द्र॒ । दे॒वाः । वधी॑म् । वृ॒त्रम् । वज्रे॑ण । म॒न्द॒सा॒नः । अप॑ । व्र॒जम् । म॒हि॒ना । दा॒शुषे॑ । व॒म् ॥ १०.२८.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:28» मन्त्र:7 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र-एव हि) हे आत्मन् ! या राजन् ! ऐसे ही जैसे तुझे उत्पादक परमात्मा जन्म देता है, वैसे ही (देवाः) दिव्य शक्तियाँ या विद्वान् (मां तवसम्-उग्रं जज्ञुः) मुझ बलवान् प्रतापी को मानते हैं-सम्पन्न करते हैं (कर्मन् कर्मन् वृषणम्) प्रत्येक कर्म शरीर के अन्दर रक्तवहन जीवनप्रदान आदि कर्म में सुखवर्षक को, या राष्ट्र में प्रत्येक कर्मविभाग में सुखवर्षक को (मन्दसानः-महिना वज्रेण वृत्रं वधीम्) मैं प्राण विकसित होता हुआ महान् ओज से आवरक रोग या मल को शरीर से नष्ट करता हूँ या मैं राजमन्त्री राष्ट्र से अनायास महान् अस्त्र से आक्रमणकारी को नष्ट करता हूँ (दाशुषे व्रजम्-अपवम्) रस प्रदान करनेवाले अङ्ग के लिए मार्ग खोलता हूँ या राष्ट्र के लिये सुखमार्ग खोलता हूँ ॥७॥
भावार्थभाषाः - शरीर के अन्दर परमात्मा जैसे आत्मा को बसाता है, ऐसे ही दिव्य शक्तियाँ रक्तवाहक जीवनप्रद सुखवर्षक प्राण को बसाती हैं। प्राण ओज के साथ विकसित होता हुआ आवरक रोग और मन को शरीर से बाहर निकालता है। इस प्रदान करनेवाले अङ्ग के लिए मार्ग खोलता है तथा राष्ट्र में परमात्मा जैसे अपने आदेशों नियमों से राजा को बनाता है, ऐसे ही विद्वान् लोग राज्यमन्त्री को बनाते हैं। राष्ट्र के प्रत्येक कर्मविभाग में सुख को बरसानेवाला राज्यमन्त्री होता है। वह बाहरी आक्रमणकारी को नष्ट करता है और शुल्कोपहार देनेवाले का मार्ग खोलता है ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

तवस - उग्र- वृषा

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (एवा) = इस प्रकार (हि) = निश्चय से (देवाः) = सब प्राकृतिक शक्तियाँ तथा विद्वान् लोग (माम्) = मुझे (तवसम्) = बढ़ा हुआ (जज्ञुः) = बनाते हैं । सब प्राकृतिक पदार्थों के यथोचित प्रयोग से तथा विद्वानों के सत्संग से मैं अपनी सब शक्तियों को बढ़ानेवाला बनता हूँ । ये देव (उग्रम्) = मुझे तेजस्वी बनाते हैं तथा (कर्मन् कर्मन्) = प्रत्येक कर्म में (वृषणम्) = ये मुझे शक्तिशाली बनाते हैं । [२] शक्तिशाली बनकर मैं (वज्रेण) = क्रियाशीलता के द्वारा (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (वधीम्) = नष्ट करता हूँ। वासना को नष्ट करने का उपाय क्रिया में लगे रहना ही है। [३] (मन्दसानः) = वृत्र के विनाश से प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ मैं (दाशुषे) = उस सम्पूर्ण पदार्थों के देनेवाले प्रभु के लिये (महिना) = महिमा के द्वारा, अर्थात् उस प्रभु की अर्चना के द्वारा (व्रजम्) = इन्द्रियरूप गौवों के समूह को (अप वम्) = [अप अवृ] विषय वृत्तियों से दूर करके सुरक्षित करता हूँ। प्रभु के स्तवन से विषय-वासनाओं की निवृत्ति होती है, ये इन्द्रियों को बाँधनेवाली नहीं होती ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु उपासन से हम इन्द्रियरूप गौवों का रक्षण करनेवाले होते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र-एव हि) हे आत्मन् ! राजन् ! वा एवं हि यथां त्वां जनयिता परमात्मा प्रादुर्भावयति, तथा (देवाः) दिव्याः शक्तयो विद्वांसो वा (मां तवसम्-उग्रं जज्ञुः) मां बलवन्तमथोग्रं प्रतापिनं मन्यन्ते-सम्पादयन्ति (कर्मन् कर्मन् वृषणम्) प्रत्येककर्मणि शरीरे रक्तवहनजीवनप्रदानादिकर्मणि सुखवर्षकमिति, राष्ट्रे वा प्रत्येककर्मविभागे सुखवर्षकमिति (मन्दसानः-महिना वज्रेण वृत्रं वधीम्) प्रसन्नः सन् महता-ओजसा “वज्रो वा ओजः” [श० ८।४।१।२०] आवरकं रोगं मलं वाऽहं प्राणो नाशयामि शरीरात् यद्वाऽहं राज्यमन्त्री राष्ट्रादनायासः सन् महताऽस्त्रेणाक्रमणकारिणं नाशयामि (दाशुषे व्रजम्-अपवम्) रसप्रदात्रेऽङ्गाय मार्गमपवृणोमि-अपवारयामि “व्रजः-व्रजन्ति यस्मिन्” [ऋ० ५।३३।१० दयानन्दः] राष्ट्राय शुल्कदत्तवते सुखमार्गमुद्घाटयामि ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Thus do the devas, divine powers and faculties create and know me as mighty and formidable, virile and generous in every act of the system. Happily with the mighty vajra, vital power, I break the dark cloud of rain with mighty thunder and open the paths of progress for the creative and generous vital channels of the dynamics of the system.