पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एवा) = इस प्रकार गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से बुद्धि के देने के द्वारा (हि) = निश्चय से (तवसम्) = वृद्धिशील मुझको (वर्धयन्ति) = प्रभु की प्रेरणाएँ बढ़ाती हैं और उस प्रेरणा के अनुसार चलने से (मे) = मेरा (धूः) =[wealth] धन (बृहतः दिवः चित्) = इस विशाल द्युलोक से भी उत्तरा - उत्कृष्ट होता है। सबसे नीचे इस पृथ्वीलोक शरीर का धन है, यह धन है 'स्वास्थ्य' । इससे ऊपर अन्तरिक्ष- लोक हृदय का धन 'निर्मलता है, द्वेषादि का अभाव। इससे भी ऊपर द्युलोक = मस्तिष्क का धन है, अपरा विद्या व पराविद्या । प्रकृति विद्या के नक्षत्र व ब्रह्मविद्या का सूर्य मेरे मस्तिष्क रूप द्युलोक में चमकता है। इससे ऊपर मेरा धन 'एकत्वदर्शन' के रूप में होता है, मैं उस अद्वैत स्थिति में पहुँचता हूँ जिसके उपनिषद् में 'शान्तं शिवं अद्वैतम्' कहा है। ज्ञान का यह परिणाम होना ही चाहिए। [२] इस स्थिति में पहुँचा हुआ में (साकम्) = एक साथ ही (पुरू सहस्त्रा) = अनेक हजारों वासनारूप शत्रुओं को (निशिशामि) = [ हिनस्मि ] हिंसित करता हूँ, अपने तीर का निशाना बनाता हूँ। वासनाओं का विनाश करता हूँ। [३] इस प्रकार (जनिता) = उस उत्पादक प्रभु ने (मा) = मुझे (हि) = निश्चय से (अशत्रुम्) = शत्रुरहित (जजान) = कर दिया है। वस्तुतः अन्तःशत्रुओं के नाश से बाह्य शत्रुओं का नाश अपने आप ही हो जाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु के दिये हुए ज्ञान से मेरी वृद्धि होती है, मैं 'स्वास्थ्य नैर्मल्य व उज्ज्वलता' रूप धनों से भी उत्कृष्ट 'एकत्वदर्शन' रूप धन को प्राप्त कर पाता हूँ । वासनाओं को नष्ट करके 'अशत्रु' हो जाता हूँ ।