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ए॒वा हि मां त॒वसं॑ व॒र्धय॑न्ति दि॒वश्चि॑न्मे बृह॒त उत्त॑रा॒ धूः । पु॒रू स॒हस्रा॒ नि शि॑शामि सा॒कम॑श॒त्रंय हि मा॒ जनि॑ता ज॒जान॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā hi māṁ tavasaṁ vardhayanti divaś cin me bṛhata uttarā dhūḥ | purū sahasrā ni śiśāmi sākam aśatruṁ hi mā janitā jajāna ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व । हि । माम् । त॒वस॑म् । व॒र्धय॑न्ति । दि॒वः । चि॒त् । मे॒ । बृ॒ह॒तः । उत्ऽत॑रा । धूः । पु॒रु । स॒हस्रा॑ । नि । शि॒शा॒मि॒ । सा॒कम् । अ॒श॒त्रुम् । हि । मा॒ । जनि॑ता । ज॒जान॑ ॥ १०.२८.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:28» मन्त्र:6 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:20» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एव हि) इस प्रकार (मां तवसम्) मुझ बलवान् आत्मा व राजा को (वर्धयन्ति) शरीराङ्ग या राज्याङ्ग समृद्ध करते हैं (बृहतः-दिवः-चित्-मे-उत्तरा धूः) महान् द्युलोक से भी उत्कृष्ट मेरी धारणाशक्ति है, जिससे मैं शरीर को या राष्ट्र को धारण करता हूँ। (पुरु सहस्रा साकं नि शिशामि) बहुत सहस्र-असंख्य दोषों को या शत्रुओं को एक साथ क्षीण करता हूँ, विनष्ट करता हूँ (जनिता माम्-अशत्रुं हि जजान) उत्पादक परमात्मा शरीर में मुझ आत्मा को या राष्ट्र में मुझ राजा को शत्रुरहित प्रकट करता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - शरीर में आत्मा बलवान् होता है। उसे शरीराङ्ग समृद्ध करते हैं। उसकी शरीर को धारण करने की शक्ति द्युलोक से भी उत्कृष्ट होती है, सहस्रों दोषों को क्षीण कर देता है। परमात्मा इसे शत्रुरहित शरीर में प्रकट करता है तथा राष्ट्र में राजा बलवान् होता है। उसे राज्य के अङ्ग समृद्ध करते हैं। उसकी राष्ट्र को धारण करने की शक्ति द्युलोक से भी उत्कृष्ट होती है। वह सहस्रों शत्रुओं को एक साथ नष्ट कर देता है। परमात्मा उसे शत्रुरहित बनाता है ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अ- शत्रु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एवा) = इस प्रकार गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से बुद्धि के देने के द्वारा (हि) = निश्चय से (तवसम्) = वृद्धिशील मुझको (वर्धयन्ति) = प्रभु की प्रेरणाएँ बढ़ाती हैं और उस प्रेरणा के अनुसार चलने से (मे) = मेरा (धूः) =[wealth] धन (बृहतः दिवः चित्) = इस विशाल द्युलोक से भी उत्तरा - उत्कृष्ट होता है। सबसे नीचे इस पृथ्वीलोक शरीर का धन है, यह धन है 'स्वास्थ्य' । इससे ऊपर अन्तरिक्ष- लोक हृदय का धन 'निर्मलता है, द्वेषादि का अभाव। इससे भी ऊपर द्युलोक = मस्तिष्क का धन है, अपरा विद्या व पराविद्या । प्रकृति विद्या के नक्षत्र व ब्रह्मविद्या का सूर्य मेरे मस्तिष्क रूप द्युलोक में चमकता है। इससे ऊपर मेरा धन 'एकत्वदर्शन' के रूप में होता है, मैं उस अद्वैत स्थिति में पहुँचता हूँ जिसके उपनिषद् में 'शान्तं शिवं अद्वैतम्' कहा है। ज्ञान का यह परिणाम होना ही चाहिए। [२] इस स्थिति में पहुँचा हुआ में (साकम्) = एक साथ ही (पुरू सहस्त्रा) = अनेक हजारों वासनारूप शत्रुओं को (निशिशामि) = [ हिनस्मि ] हिंसित करता हूँ, अपने तीर का निशाना बनाता हूँ। वासनाओं का विनाश करता हूँ। [३] इस प्रकार (जनिता) = उस उत्पादक प्रभु ने (मा) = मुझे (हि) = निश्चय से (अशत्रुम्) = शत्रुरहित (जजान) = कर दिया है। वस्तुतः अन्तःशत्रुओं के नाश से बाह्य शत्रुओं का नाश अपने आप ही हो जाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु के दिये हुए ज्ञान से मेरी वृद्धि होती है, मैं 'स्वास्थ्य नैर्मल्य व उज्ज्वलता' रूप धनों से भी उत्कृष्ट 'एकत्वदर्शन' रूप धन को प्राप्त कर पाता हूँ । वासनाओं को नष्ट करके 'अशत्रु' हो जाता हूँ ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एव हि) एवं खलु (मां तवसम्) मां बलवन्तम्-आत्मानं राजानं वा (वर्धयन्ति) समृद्धं कुर्वन्ति शरीराङ्गाणि राज्याङ्गानि वा (बृहतः दिवः चित् मे उत्तरा धूः) महतो द्युलोकादपि ममोत्कृष्टा धारणशक्तिरस्ति, यतोऽहं शरीरं राष्ट्रं वा धारयामि (पुरु सहस्रा साकं नि शिशामि) पुरूणि-बहूनि-सहस्राणि-असंख्यानि दोषाणां शत्रूणां वा सकृदेव तनूकरोमि-चूर्णयामि-विनाशयामि अत्र “शो तनूकरणे” [दिवादि०] ततः “बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।४।७६] इति श्यन्स्थाने श्लुः (जनिता माम्-अशत्रुं हि जजान) जनयिता परमात्मा मां आत्मानं राजानं वा शरीरे राष्ट्रे वा शत्रुरहितं प्रादुर्भावयति ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Thus do they (assistant powers) exalt me, mighty soul, ruler of the system. The foundation, structure, direction and stability of the system, the power I wield to sustain and rule the system is greater than the vast heavens. A thousand foes I eliminate, all at once, with a single stroke. Indeed the creative powers that generate and manifest me as power generate me without enemy and opposition.