प्रभु का मैं 'पाक' हूँ प्र और उसका 'पाक'
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में प्रभु सम्पर्क से होनेवाले अद्भुत परिणाम का उल्लेख था । प्रस्तुत मन्त्र में जीव कहता है कि हे इन्द्र ! (ते) = आपके (एतत्) = इस अद्भुत बल को (अहम्) = मैं (कथम्) = कैसे (आचिकेतम्) = जान पाऊँ, मैं कैसे इसे अपने जीवन में अनुभव कर पाऊँ ? क्रियात्मक बात तो यही है कि मैं आपकी उस शक्ति को अपने जीवन में देखनेवाला बनूँ। [२] (गृत्सस्य) = मेधावी, गुरु, गुरुओं के भी गुरु, (तवसः) = शक्ति के दृष्टिकोण से अत्यन्त बढ़े हुए आपका मैं (पाकः) = बच्चा ही तो हूँ । आपके द्वारा ही मैं (परिपक्तव्य) = प्रज्ञावाला हूँ । आपने ही मेरा परिपाक करना है। [३] हमारे परिपाक के लिये ही (त्वम्) = आप (विद्वान्) = हमारी शक्ति व स्थिति को जानते हुए (ऋतुथा) = समयानुसार (नः) = हमें (मनीषाम्) = बुद्धि को, बुद्धिगम्य ज्ञान को (विवोचः) = विशेषरूप से कहते हैं। इस ज्ञान के द्वारा ही तो आपने हमारा परिपाक करना है। [४] आप तो ज्ञान देते हैं, परन्तु हम उस ज्ञान को पूरी तरह से ग्रहण नहीं कर पाते, परन्तु हे (मघवन्) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो ! हम (ते) = आपके (यं अर्धम्) = जिस आधे भी ज्ञान को ग्रहण करते हैं, वह ही हमारे लिये (क्षेम्या) = अत्यन्त कल्याणकर (धू:) = wealth = सम्पत्ति होता है। इस ज्ञान का थोड़ा भी अंश हमारा कल्याण करता है । जितना भी अधिक इसे हम अपनाएँगे, उतना ही यह हमारे लिये अधिकाधिक कल्याणकर होगा ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु के पाक-सन्तान हैं । प्रभु हमें ज्ञान देते हैं । उस ज्ञान को हम जितना अपनाएँगे उतने ही कल्याण को भी प्राप्त करेंगे।