पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में प्रभु ने जीव को सुतसोम बनने के लिये कहा था। उसका उत्तर देते हुए वह कहता है कि हे (इन्द्र) = सोम का पान करनेवाले प्रभो! (ते मन्दिनः) = तेरे स्तोता लोग (अद्रिणा) = [अद्रिर्वज्रः] क्रियाशीलता के द्वारा अथवा [न दीर्यते] धर्म मार्ग से न विदृत होने के द्वारा (तूयान्) = विलम्ब न करनेवाले, अर्थात् शीघ्रता से कार्यों को करने की शक्ति को देनेवाले (सोमान्) = सोमों को, शक्ति कणों को (सुन्वन्ति) = उत्पन्न करते हैं । (एषाम्) = इन सोमकणों का (त्वम्) = आप ही (पिबसि) = पान करते हो, अर्थात् इन सोमकणों की मेरे शरीर में ही रक्षा आपकी कृपा से होती है। आपका स्मरण मुझे वासना से ऊपर उठाता है और वासना से ऊपर उठने के कारण मैं सोम को सुरक्षित करने में समर्थ होता हूँ। [२] इस प्रकार (ते) = तेरे ये भक्त (वृषभान् पचन्ति) = अथवा परिपाक शक्तिशाली पुरुष के रूप में करते हैं, शक्तिशाली बनकर ये औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाले होते हैं । [३] हे प्रभो! आप (तेषाम्) = उनके मार्ग में आनेवाले विघ्नों का (अत्सि) = संहार करते हैं [अद्=to destroy]। परन्तु यह विघ्नों का संहार आप कब करते हैं ? (यत्) = जब कि (पृक्षेण) = [पृची संपर्के] आपके साथ सम्पर्क से, हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (हूयमानः) = पुकारे जाते हैं । ये भक्त प्रातः- सायं आपके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं और शक्तिशाली बनकर, विघ्नों को दूर करते हुए, आगे बढ़ते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- क्रियाशीलता के द्वारा हम वासना से बचें। सोम के रक्षण से अपने को शक्तिशाली बनाएँ। प्रभु सम्पर्क से शक्तिशाली बनकर, विघ्नों को दूर करते हुए, हम आगे बढ़ें।