पदार्थान्वयभाषाः - [१] (स) = वह, गत मन्त्र के अनुसार जौ व गोदुग्ध का प्रयोग करनेवाला तथा चित्तवृत्ति के निरोध का अभ्यासी पुरुष, (रोरुवद्) = खूब ही प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। इस नामोच्चारण से वह अपने में प्रभु की शक्ति के संचार को करता हुआ (वृषभ:) = शक्तिशाली बनता है औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है। (तिग्मशृंगः) = तीक्ष्ण ज्ञान की रश्मियोंवाला होता है, इसकी इन प्रचण्ड ज्ञानरश्मियों में सब मल भस्मीभूत हो जाते हैं । अब यह (पृथिव्याः) = अन्तरिक्ष के, हृदयान्तरिक्ष के (वर्ष्मन्) = वरिष्ठ उन्नत प्रदेश में, द्वेषादि मलों के विध्वंस से निर्मल बने हुए प्रदेश में तथा (वरिमन्) = विशाल प्रदेश में (आतस्थौ) = सर्वथा स्थित होता है । यह अपने हृदय को निर्मल व विशाल बनानेवाला होता है। इसका शरीर शक्तिशाली बना है [वृषभ:], मस्तिष्क- ज्ञानरश्मियों से उज्ज्वल, हृदय उत्कृष्ट व विशाल । [२] प्रभु कहते हैं कि इस प्रकार के जीवनवाला (यः) = जो कोई भी (सुतसोम:) = अपने अन्दर (सोम) = वीर्य को उत्पन्न करनेवाला मे कुक्षी मेरी इन कोखों को (पृणाति) = पालित व सुरक्षित करता है, अर्थात् मेरे दिये हुए इस शरीर की कोखों में सोमरक्षण के द्वारा किसी प्रकार के रोग को उत्पन्न नहीं होने देता। (एनम्) = इसको (विश्वेषु) = सब वृजनेषु संग्रामों में (पामि) = मैं सुरक्षित करता हूँ । काम-क्रोधादि शत्रुओं के साथ चलनेवाले संग्रामों में इसे हारने नहीं देता ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु सुतसोम पुरुष का रक्षण करते हैं ।