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न वा उ॒ मां वृ॒जने॑ वारयन्ते॒ न पर्व॑तासो॒ यद॒हं म॑न॒स्ये । मम॑ स्व॒नात्कृ॑धु॒कर्णो॑ भयात ए॒वेदनु॒ द्यून्कि॒रण॒: समे॑जात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na vā u māṁ vṛjane vārayante na parvatāso yad aham manasye | mama svanāt kṛdhukarṇo bhayāta eved anu dyūn kiraṇaḥ sam ejāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न । वै । ऊँ॒ इति॑ । माम् । वृ॒जने॑ । वा॒र॒य॒न्ते॒ । न । पर्व॑तासः । यत् । अ॒हम् । म॒न॒स्ये । मम॑ । स्व॒नात् । कृ॒धु॒ऽकर्णः॑ । भ॒या॒ते॒ । ए॒व । इत् । अनु॑ । द्यून् । कि॒रणः॑ । सम् । ए॒जा॒त् ॥ १०.२७.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:27» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (न वा-उ) न ही (वृजने) बलप्रसङ्ग में (मां वारयन्ते) कोई भी मुझे बल प्रदर्शन से हटा सकते हैं (यत्-अहं मनस्ये) जो मैं करना चाहता हूँ, उससे (पर्वतासः-न) पर्वतसमान बलवाले भी रोकने में समर्थ नहीं हैं, (मम स्वनात्) मेरे आदेश से-शासन से (कृधुकर्णः-भयाते-एव-इत्) अल्पकानवाला-अल्पेन्द्रियशक्तिवाला पापी जन भय करता ही है, (किरणः-अनुद्यून् सम् एजात्) प्रचण्ड किरणोंवाला सूर्य भी प्रतिदिन-दिनोंदिन सम्यक् गति करता है-अपना कार्य करता है-प्रकाश करता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा को उसके बलप्रदर्शन से कोई हटा नहीं सकता। पर्वत जैसे महान् बलवान् भी उसको रोक नहीं सकते। सूर्य भी उसके अधीन चमकता है, प्रकाश देता है और अल्पशक्तिवाला जीवात्मा उससे भय खाता है-कर्मों के अनुसार फलों को भोगता ही है ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'अश्रुत' प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (वृजने) = संग्राम में (माम्) = मुझे (वा उ) = निश्चय से (न वारयन्ते) = कोई भी रोक नहीं पाते। (न) = ना ही (पर्वतासः) = पर्वत मुझे प्रतिबद्ध कर सकते हैं, (यद्) = जब (अहम्) = मैं मनस्ये निश्चय कर लेता हूँ । प्रभु की व्यवस्थाएँ अटल होती हैं, प्रभु के निर्णय रोके नहीं जा सकते। [२] (मम स्वनात्) = मेरे शब्द से (कृधुकर्णः) = अत्यन्त छोटे कानोंवाला, अर्थात् जो एकदम बहरे कानोंवाला है वह भी (भयात) = भयभीत हो उठता है और अपने कार्य में ठीक से लग जाता है । (एवा इत्) = इसी ही प्रकार (अनु द्यून्) = प्रतिदिन (किरणः) = प्रकाश को चारों ओर फेंकनेवाला यह सूर्य भी (समेजात्) = सम्यक् काँप उठता है और सम्यक् गति करता है एवं यह जड़ जगत् भी प्रभु के भय से पूर्ण व्यवस्था में चल रहा है। चेतन जगत् भी प्रभु-भय से व्यवस्था में चलता है तो कल्याण भागी होता है, व्यवस्था को तोड़ते ही उसे प्रभु की दण्डव्यवस्था में पिसना पड़ता है। 'भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ' यह उपनिषद् वाक्य इसी भाव को व्यक्त कर रहा है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु की व्यवस्था को कोई रोक नहीं सकता। बहरे से बहरे को प्रभु की व्यवस्था सुननी होती है, सूर्यादि सब पिण्ड प्रभु भय से ही अपने मार्ग का आक्रमण कर रहे हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (न वा-उ) नैव (वृजने) बलप्रसङ्गे (मां वारयन्ते) मां केचिदपि निवारयन्ते  बलप्रदर्शनान्निवृत्तं कर्त्तुं शक्नुवन्ति (यत्-अहं मनस्ये) यत् खल्वहं कर्त्तुमिच्छामि तस्मात् (पर्वतासः न) पर्वताः पर्वतसदृशा बलवन्तो नावरोद्धुं समर्थाः (मम स्वनात्) मम-आदेशाच्छासनात् (कृधुकर्णः भयाते एव इत्) अल्पकर्णः अल्पेन्द्रियशक्तिकः पापिजनः “कृध्विति ह्रस्वनाम” [निरु० ६।३] बिभेति (किरणः अनुद्यून् समेजात्) किरणवान् सूर्यः “अकारो मत्वर्थीयोऽत्र” सर्वदिनानि प्रति “द्युः अहर्नाम” [निघं० १।९] सम्यक् स्वगतिं करोति स्वकार्यं करोति प्रकाशते ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When I decide to do what I want to do, no powers can obstruct me on the way, not even powers insurmountable as mountains otherwise. At my roar even persons of faintest ear shake with fear. And the sun, commanding boundless light rays goes on way day and night at my command.