पदार्थान्वयभाषाः - [१] (वृजने) = संग्राम में (माम्) = मुझे (वा उ) = निश्चय से (न वारयन्ते) = कोई भी रोक नहीं पाते। (न) = ना ही (पर्वतासः) = पर्वत मुझे प्रतिबद्ध कर सकते हैं, (यद्) = जब (अहम्) = मैं मनस्ये निश्चय कर लेता हूँ । प्रभु की व्यवस्थाएँ अटल होती हैं, प्रभु के निर्णय रोके नहीं जा सकते। [२] (मम स्वनात्) = मेरे शब्द से (कृधुकर्णः) = अत्यन्त छोटे कानोंवाला, अर्थात् जो एकदम बहरे कानोंवाला है वह भी (भयात) = भयभीत हो उठता है और अपने कार्य में ठीक से लग जाता है । (एवा इत्) = इसी ही प्रकार (अनु द्यून्) = प्रतिदिन (किरणः) = प्रकाश को चारों ओर फेंकनेवाला यह सूर्य भी (समेजात्) = सम्यक् काँप उठता है और सम्यक् गति करता है एवं यह जड़ जगत् भी प्रभु के भय से पूर्ण व्यवस्था में चल रहा है। चेतन जगत् भी प्रभु-भय से व्यवस्था में चलता है तो कल्याण भागी होता है, व्यवस्था को तोड़ते ही उसे प्रभु की दण्डव्यवस्था में पिसना पड़ता है। 'भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ' यह उपनिषद् वाक्य इसी भाव को व्यक्त कर रहा है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु की व्यवस्था को कोई रोक नहीं सकता। बहरे से बहरे को प्रभु की व्यवस्था सुननी होती है, सूर्यादि सब पिण्ड प्रभु भय से ही अपने मार्ग का आक्रमण कर रहे हैं ।