पदार्थान्वयभाषाः - [१] (वृक्षे वृक्षे) = प्रत्येक शरीररूप वृक्ष में हृदयस्थ प्रभु से (गौ:) = वेदवाणी (नियता) = बद्ध की गई है और वह (मीमयत्) = वेदवाणी रूप गौ शब्द करती है। यह ठीक है कि इस शब्द को सब कोई सुनता नहीं है । [२] (ततः) = इन वेदवाणी के शब्दों से (पूरुषादः)[पुरुषात् अदन्ति =ब्रह्म चरन्ति] = उस प्रत्येक शरीर में वास करनेवाले प्रभु से ज्ञान प्राप्त करनेवाले (वयः) - [वय् गतौ way] = मार्ग पर चलनेवाले प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष (प्रपतान्) = प्रकृष्ट मार्ग से जाते हैं, उन्नतिपथ पर आगे बढ़ते हैं । [३] (अथ) = अब (इदम्) = यह (विश्वम्) = सब (भुवनम्) = लोक भयाते उस प्रभु से भय करता है। उसके भय से ही 'अग्नि तपती है, सूर्य चमकता है, मेघ, वायु व मृत्यु भी उस प्रभु के शासन में ही अपने-अपने कार्य को करते हैं' । [४] (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये (सुन्वत्) = अपने शरीर में सात्त्विक आहार से सोम [= वीर्य] का अभिषव करता है। इस सोम के शरीर में पान करने से ही वह उस सोम 'परमात्मा' को पानेवाला बनता है (च) = और (ऋषये) = उस प्रभु के दर्शन के लिये, ऋषि बनने के लिये (शिक्षत्) = विद्या का उपादान करता है। यह विद्या ही तो उसे ब्रह्म का साक्षात्कार करानेवाली होती है 'परा (विद्या) यया तदक्षरमधिगम्यते' । प्रभु दर्शन इस प्रकार ऋषियों की तीव्र बुद्धि से ही हो सकता है 'दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः'।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम हृदयस्थ प्रभु से उच्चारित वेदवाणी को सुनें । प्रभु के भय से सदा उत्कृष्ट मार्ग पर चलें। उस प्रभु के दर्शन के लिये सोम का रक्षण करें और शिक्षा का उपादान करते हुए ऋषि बनें।