'कर्म ज्ञान व उपासना' का समन्वय
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सूर्यस्य) = सूर्य के (बृहतः) = विशाल (पुरीषात्) = उदक से (अवः) = नीचे, अर्थात् द्युलोक में सूर्य स्थित है, इस सूर्य की किरणों से अन्तरिक्ष में विशाल जल की मेघरूप में स्थापना होती है, उससे नीचे इस पृथ्वीलोक पर (अयम्) = यह (यः) = जो (वज्रः) = क्रियाशीलतारूप वज्र प्रभु ने दिया है। यह वज्र इन्द्र से (पुरुधा विवृत्तः) = नाना प्रकार से प्रवृत्त होता है। इस क्रियाशीलता से जीव नाना प्रकार के कर्म किया करता है । कर्ममेघ से ही वह 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र' कहलाने लगता है। इस प्रकार जीव प्रभु से शक्ति को प्राप्त करके विविध कार्य करता है। यही उसका कर्मकाण्ड को अपनाना है । [२] (एना) = इस कर्मकाण्ड से (परः) = उत्कृष्ट (अन्यत्) = दूसरा (इत्) = निश्चय से (श्रवः) = ज्ञान (अस्ति) = है । ये व्यक्ति कर्म के साथ ज्ञान को अपनाते हैं। ज्ञान ही तो उनके कर्मों की पवित्रता का कारण होता है। [३] (तत्) = सो इस प्रकार कर्म व ज्ञान को अपनाकर (अव्यथी) = ये व्यथा से रहित होते हैं । कोई भी कर्मशील व्यक्ति भूखा नहीं मरता । यदि कर्म के साथ वह ज्ञान को भी अपनाता है और इस प्रकार अपने कर्मों को पवित्र कर लेता है, तब तो उसके पीड़ित होने का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। [४] इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा (जरिमाण:) = प्रभु का स्तवन करनेवाले ये लोग (तरन्ति) = भवसागर को तैर जाते हैं । सब पापों से परे होने के कारण इन्हें फिर इस जन्म-मरण चक्र में नहीं आना पड़ता।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम 'कर्म ज्ञान व स्तवन' को अपनाकर इस भवसागर को तैरनेवाले हों।