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अ॒यं यो वज्र॑: पुरु॒धा विवृ॑त्तो॒ऽवः सूर्य॑स्य बृह॒तः पुरी॑षात् । श्रव॒ इदे॒ना प॒रो अ॒न्यद॑स्ति॒ तद॑व्य॒थी ज॑रि॒माण॑स्तरन्ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ yo vajraḥ purudhā vivṛtto vaḥ sūryasya bṛhataḥ purīṣāt | śrava id enā paro anyad asti tad avyathī jarimāṇas taranti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम् । यः । वज्रः॑ । पु॒रु॒धा । विऽवृ॑त्तः । अ॒वः । सूर्य॑स्य । बृ॒ह॒तः । पुरी॑षात् । श्रवः॑ । इत् । ए॒ना । प॒रः । अ॒न्यत् । अ॒स्ति॒ । तत् । अ॒व्य॒थी । ज॒रि॒माणः॑ । त॒र॒न्ति॒ ॥ १०.२७.२१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:27» मन्त्र:21 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:21


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः-अयं वज्रः पुरुधा विवृत्तः) जो यह दु:खों से छुड़ानेवाला जीवन-प्राण सब जीवों में विशेषरूप से रहता है। (सूर्यस्य बृहतः पुरीषात्) सूर्यसदृश जगत्प्रकाशक परमात्मा के महान् पालनधर्म से (अवः) अवर मार्ग से-संसारमार्ग से हमें प्राप्त हुआ (इत्) और (एना परः-अन्यत्-श्रवः-अस्ति) इस संसारमार्ग से परे अन्य श्रवणीय मोक्ष जीवन है (तत्) उस मोक्ष जीवन को (अव्यथी जरिमाणः-तरन्ति) संसार में अबाध्यमान-दोषरहित स्तुति करनेवाले उपासक प्राप्त करते हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः - दुःखों से बचानेवाला जीवों के अन्दर जीवनप्राण होता है। सूर्य के समान जगत्प्रकाशक परमात्मा की कृपा से यह प्राप्त होता है। इससे ऊँचा मोक्ष जीवन है, जिसको दोषरहित स्तुति करनेवाले उपासक प्राप्त किया करते हैं ॥२१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'कर्म ज्ञान व उपासना' का समन्वय

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सूर्यस्य) = सूर्य के (बृहतः) = विशाल (पुरीषात्) = उदक से (अवः) = नीचे, अर्थात् द्युलोक में सूर्य स्थित है, इस सूर्य की किरणों से अन्तरिक्ष में विशाल जल की मेघरूप में स्थापना होती है, उससे नीचे इस पृथ्वीलोक पर (अयम्) = यह (यः) = जो (वज्रः) = क्रियाशीलतारूप वज्र प्रभु ने दिया है। यह वज्र इन्द्र से (पुरुधा विवृत्तः) = नाना प्रकार से प्रवृत्त होता है। इस क्रियाशीलता से जीव नाना प्रकार के कर्म किया करता है । कर्ममेघ से ही वह 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र' कहलाने लगता है। इस प्रकार जीव प्रभु से शक्ति को प्राप्त करके विविध कार्य करता है। यही उसका कर्मकाण्ड को अपनाना है । [२] (एना) = इस कर्मकाण्ड से (परः) = उत्कृष्ट (अन्यत्) = दूसरा (इत्) = निश्चय से (श्रवः) = ज्ञान (अस्ति) = है । ये व्यक्ति कर्म के साथ ज्ञान को अपनाते हैं। ज्ञान ही तो उनके कर्मों की पवित्रता का कारण होता है। [३] (तत्) = सो इस प्रकार कर्म व ज्ञान को अपनाकर (अव्यथी) = ये व्यथा से रहित होते हैं । कोई भी कर्मशील व्यक्ति भूखा नहीं मरता । यदि कर्म के साथ वह ज्ञान को भी अपनाता है और इस प्रकार अपने कर्मों को पवित्र कर लेता है, तब तो उसके पीड़ित होने का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। [४] इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा (जरिमाण:) = प्रभु का स्तवन करनेवाले ये लोग (तरन्ति) = भवसागर को तैर जाते हैं । सब पापों से परे होने के कारण इन्हें फिर इस जन्म-मरण चक्र में नहीं आना पड़ता।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम 'कर्म ज्ञान व स्तवन' को अपनाकर इस भवसागर को तैरनेवाले हों।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः अयं वज्रः पुरुधा विवृत्तः) यः खल्वयं सर्वदुःखेभ्यो वर्जयिता “वज्रो वर्जयतीति सतः” [निरु० ३।११] जीवनप्राणः बहुषु जीवेषु सर्वेषु जीवेषु विशेषेण प्रवृत्तोऽस्ति (सूर्यस्य बृहतः पुरीषात्) सूर्यसदृशस्य जगत्प्रकाशकस्य परमात्मनो महतः पालनधर्मात् (अवः) अवरमार्गात्-अस्मान्-प्राप्तः (इत्) अपि (एना परः-अन्यत्-श्रवः-अस्ति) एतस्मात् संसारात्-परमन्यद्-भिन्नं श्रवणीयं मोक्षजीवनमस्ति। (तत्) तन्मोक्षजीवनम् (अव्यथी जरिमाणः-तरन्ति) संसारेऽबाध्यदोषरहिताः स्तोतारः जस्स्थाने सुः-व्यत्ययेन प्राप्नुवन्ति “जरति अर्चतिकर्मा” [निघ० ३।१४] ॥२१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - This thunderous pranic energy, which radiates from the mighty orb of the sun in varied ways, comes down to us by the paths of Prakrti. Beyond this is there another path and destination too, revealed and heard, to which the celebrants of divinity free from psychic travails of existence attain beyond the flood of pleasure and pain here.