समुद्र जल-सूर्य व मेघ में प्रभु-दर्शन
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एतौ) = ये (मे) = मेरी (गावौ) = [ गावः इन्द्रियाणि] ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप दो गौवों (प्रमरस्य) = शत्रुओं को प्रकर्षेण नष्ट करनेवाले उस प्रभु से (युक्तौ) = शरीर शकट के अन्दर जोती गयी हैं । प्रभु ने मेरे इस शरीर - शकट को सुचारुरूपेण चलाने के लिये इसमें ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप दो बैल [= गावौ ] जोते हैं। प्रभु ने ये इन्द्रियाँ दी हैं जिससे हम जीवन-यात्रा में आगे और आगे चल सकें। [२] (मा उसु प्रसेधी:) = हे प्रभो ! आप इनको मेरे इस रथ से [मा अपगमय] अलग न करिये। ये इसमें ठीक से जुती ही रहें। इनका कार्य ठीक प्रकार से चलता रहे। इन इन्द्रियों [ख] के ठीक [सु] होने को ही तो 'सुख' कहते हैं, इनका विकृत [दुः] होना ही दुःख है। इस प्रकार इन्हें मेरे से अपगत न करके मुहुः और अधिक उन्ममन्धि-उत्कृष्ट हर्ष से युक्त करिये। [३] (अस्य) = इस स्तोता को (आपः चित्) = ये समुद्र के विस्तृत जल भी (अर्थम्) = उस गन्तव्य प्रभु को (विनशन्ति) = [attain, To reach] प्राप्त कराते हैं, अर्थात् इन समुद्र के विस्तृत जलों में उसे प्रभु की महिमा दिखती है। (च) = और (मर्क:) = शोधीयता अपने संतापयुक्त किरणों के द्वारा सब मलों को दग्ध करके शोधन का करनेवाला (सूर:) सूर्य भी प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है। सूर्य में भी उसे प्रभु की महिमा दिखती है। यह (बभूवान्) = सब प्रकार के अन्नादि की उत्पत्ति का कारणभूत (उपर:) = मेघ भी उस प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारी इन्द्रियाँ ठीक से कार्य करती रहें और हम समुद्र जलों में, सूर्य में तथा मेघों में प्रभु की विभूति को देखनेवाले हों ।