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ए॒तौ मे॒ गावौ॑ प्रम॒रस्य॑ यु॒क्तौ मो षु प्र से॑धी॒र्मुहु॒रिन्म॑मन्धि । आप॑श्चिदस्य॒ वि न॑श॒न्त्यर्थं॒ सूर॑श्च म॒र्क उप॑रो बभू॒वान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etau me gāvau pramarasya yuktau mo ṣu pra sedhīr muhur in mamandhi | āpaś cid asya vi naśanty arthaṁ sūraś ca marka uparo babhūvān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒तौ । मे॒ । गावौ॑ । प्र॒ऽम॒रस्य॑ । यु॒क्तौ । मो इति॑ । सु । प्र । से॒धीः॒ । मुहुः॑ । इत् । म॒म॒न्धि॒ । आपः॑ । चि॒त् । अ॒स्य॒ । वि । न॒श॒न्ति॒ । अर्थ॑म् । सूरः॑ । च॒ । म॒र्कः । उप॑रः । ब॒भू॒वान् ॥ १०.२७.२०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:27» मन्त्र:20 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:20


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मे प्रमरस्य) मेरे मरणशील जीर्ण धर्मवाले शरीर के (एतौ गावौ युक्तौ) ये गतिशील शरीर में युक्त हुए प्राण-अपानों को (मा-उ-सु) न ही (मुहुः प्रसेधीः) हे परमात्मन् ! बार बार देह से पृथक् कर (ममन्धि) तथा मेरे प्रार्थनावचन को मान स्वीकार कर (अस्य) इस मुझ प्रार्थना करते हुए के (आपः-चित्) कामनाएँ इच्छाएँ भी (अर्थं वि नशन्ति) प्रार्थनीय मोक्ष के प्रति जा रही हैं। (मर्कः सूरः-च) शोधक सूर्य की भाँति मुख्य प्राण भी (उपरः-बभूवान्) मेघ के समान जीवनरस का सींचनेवाला हो ॥२०॥
भावार्थभाषाः - मरणधर्मशील प्राण-अपान गति करते हैं। बारम्बार शरीर पृथक् होते रहते हैं। पुनः-पुनः जन्मधारण करने के निमित्त बनते हैं। उपासक की आन्तरिक भावनाएँ पुनः-पुनः शरीरधारण करने से बचकर मोक्ष को चाहती हैं ॥२०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

समुद्र जल-सूर्य व मेघ में प्रभु-दर्शन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (एतौ) = ये (मे) = मेरी (गावौ) = [ गावः इन्द्रियाणि] ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप दो गौवों (प्रमरस्य) = शत्रुओं को प्रकर्षेण नष्ट करनेवाले उस प्रभु से (युक्तौ) = शरीर शकट के अन्दर जोती गयी हैं । प्रभु ने मेरे इस शरीर - शकट को सुचारुरूपेण चलाने के लिये इसमें ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप दो बैल [= गावौ ] जोते हैं। प्रभु ने ये इन्द्रियाँ दी हैं जिससे हम जीवन-यात्रा में आगे और आगे चल सकें। [२] (मा उसु प्रसेधी:) = हे प्रभो ! आप इनको मेरे इस रथ से [मा अपगमय] अलग न करिये। ये इसमें ठीक से जुती ही रहें। इनका कार्य ठीक प्रकार से चलता रहे। इन इन्द्रियों [ख] के ठीक [सु] होने को ही तो 'सुख' कहते हैं, इनका विकृत [दुः] होना ही दुःख है। इस प्रकार इन्हें मेरे से अपगत न करके मुहुः और अधिक उन्ममन्धि-उत्कृष्ट हर्ष से युक्त करिये। [३] (अस्य) = इस स्तोता को (आपः चित्) = ये समुद्र के विस्तृत जल भी (अर्थम्) = उस गन्तव्य प्रभु को (विनशन्ति) = [attain, To reach] प्राप्त कराते हैं, अर्थात् इन समुद्र के विस्तृत जलों में उसे प्रभु की महिमा दिखती है। (च) = और (मर्क:) = शोधीयता अपने संतापयुक्त किरणों के द्वारा सब मलों को दग्ध करके शोधन का करनेवाला (सूर:) सूर्य भी प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है। सूर्य में भी उसे प्रभु की महिमा दिखती है। यह (बभूवान्) = सब प्रकार के अन्नादि की उत्पत्ति का कारणभूत (उपर:) = मेघ भी उस प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारी इन्द्रियाँ ठीक से कार्य करती रहें और हम समुद्र जलों में, सूर्य में तथा मेघों में प्रभु की विभूति को देखनेवाले हों ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मे प्रमरस्य) मम मदीयस्य प्रकृष्टं मरणशीलस्य जीर्णधर्मणः शरीरस्य (एतौ गावौ युक्तौ) इमौ गतिमन्तौ शरीरे युक्तौ प्राणापानौ ( मा उ सु) नैव (मुहुः प्रसेधीः) हे परमात्मन् ! पुनः पुनर्देहात् पृथक् कुरु (ममन्धि) इत्थं मे प्रार्थनावचनं मन्यस्व (अस्य) मम प्रार्थयमानस्य (आपः-चित्) कामाः खल्वपि “आपो वै सर्वे कामाः” [श० १०।५।४।१५] (अर्थं विनशन्ति) अर्थनीयं प्रार्थनीयं मोक्षं प्रति व्याप्नुवन्ति विशेषेण गच्छन्ति (मर्कः सूरः च) शोधकः सूर्य इव मुख्यप्राणश्च (उपरः-बभूवान्) मेघ इव “उपराः मेघनाम” [निघ० १।१०] जीवनरससेचको भवतु ॥२०॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Lord of life, pray do not deprive me, the mortal man, of these two vital energies of prana and apana joined to my existence, pray keep them integrated with me, active and pleasing. The subtle body and the pranic energies help us reach our divine goal, and may the sun and pranic energies, like the cloud, shower me here below with light and joy.