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यदीद॒हं यु॒धये॑ सं॒नया॒न्यदे॑वयून्त॒न्वा॒३॒॑ शूशु॑जानान् । अ॒मा ते॒ तुम्रं॑ वृष॒भं प॑चानि ती॒व्रं सु॒तं प॑ञ्चद॒शं नि षि॑ञ्चम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadīd ahaṁ yudhaye saṁnayāny adevayūn tanvā śūśujānān | amā te tumraṁ vṛṣabham pacāni tīvraṁ sutam pañcadaśaṁ ni ṣiñcam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यदि॑ । इत् । अ॒हम् । यु॒धये॑ । स॒म्ऽनया॑नि । अदे॑वऽयून् । त॒न्वा॑ । शूशु॑जानान् । अ॒मा । ते॒ । तुम्र॑म् । वृ॒ष॒भम् । प॒चा॒नि॒ । ती॒व्रम् । सु॒तम् । प॒ञ्च॒ऽद॒शम् । नि । सि॒ञ्च॒म् ॥ १०.२७.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:27» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते-अमा) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! तेरी सहायता से (यदि-इत्-अहं युधये) यदि तो मैं उपासक युद्ध के लिये उद्यत हो जाऊँ (तन्वा शूशुजानान्) शरीर से जाज्वल्यमान क्रोधित हुए (अदेवयून्) जो तुझे अपना इष्टदेव नहीं मानते, उन ऐसे नास्तिकों को (सम्-नयानि) सम्यक् प्रभावित करता हूँ-तेरे उपासक आस्तिक बनाता हूँ। (तुम्रं वृषभं पचानि) घोर घातक वृषभ समान पाप को खा जाता हूँ-नष्ट करता हूँ (तीव्रं सुतम्-पञ्चदशं नि षिञ्चम्) प्रबल सिद्ध ओज को अपने मन में आत्मा में पूर्ण धारण करता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा की सहायता से उपासक जन बड़े क्रोधी और नास्तिक जनों के साथ आत्मशक्ति से युद्ध करके उनको परमात्मा के उपासक-आस्तिक बनाते हैं और अपने अन्दर के प्रबल पापों को समाप्त करते हैं तथा निज मन और आत्मा में ओज-आत्मिक तेज को धारण करते हैं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अदेवयु पुरुषों का नाश

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु कहते हैं कि (यत्) = जो (अहम्) = मैं (इत्) = निश्चय से (अदेवयून्) = न देने की वृत्तिवाले पुरुषों को और अतएव आत्मादि होने के कारण (तन्वा शूशुजानान्) = शरीर से खूब फूले हुए हृष्ट- पुष्ट जनों को (युधये संनयानि) = युद्ध के लिये प्राप्त कराता हूँ । इन्हें स्वार्थ- प्रधान वृत्ति के कारण परस्वर लड़नेवाला बना देता हूँ और इन युद्धों में ये परस्पर एक दूसरे का संहार करनेवाले होते हैं। [२] इनके विपरीत जो तू (अमा) = मेरे साथ रहता है, 'ऐन्द्र' बनने का प्रयत्न करता है उस (ते) = तुझे (तुम्रम्) = [strong] बड़े शक्तिशाली व (वृषभम्) = अपनी शक्ति से औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाले के रूप में (पचानि) = परिपक्व करता हूँ । तुझे इस प्रकार परिपक्व करता हूँ जो तू लोकहित के लिये (सुतं पञ्चदशम्) = उत्पन्न किये हुए धन के पन्द्रहवें भाग को (तीव्रम्) = तीव्रता से प्रबल इच्छा से (निषिञ्चम्) = सिक्त करनेवाला होता है [सिञ्चति इति ] । एवं प्रभु-भक्त-प्रभु-प्रवण व्यक्ति बलवान्- बल से औरों को सुखी करनेवाला तथा लोकहित के लिये आय के पन्द्रहवें भाग को निश्चितरूप से देनेवाला होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- 'अदेवयु व तन्वाशूशुजान' आपस में लड़ मरते हैं। प्रभु-भक्त बलवान्, परोपकारी व दानी होते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते-अमा) हे इन्द्र-ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! तव साहाय्येन (यदि-इत्-अहम् युधये) यदि ह्यहमुपासको युद्धाय खलूद्यतो भवेयम् (तन्वा शूशुजानान्) शरीरेण शूशुचानान् जाज्वल्यमानान् ‘चकारस्थाने जकारश्छान्दसः’ (अदेवयून्) ये त्वां स्वदेवं परमात्मानं न मन्यन्ते तथाभूतान् नास्तिकान् (सम् नयानि) सम्प्रभावयामि त्वदुपासकान्-आस्तिकान् सम्पादयामि (तुम्रं वृषभं पचानि) आहन्तारम् “तुम्रः आहन्ता” [ऋ० ३।५०।१ दयानन्दः] वृषभमिव पापं भक्षयामि-नाशयामि (तीव्रं सुतम्-पञ्चदशं नि षिञ्चम्) प्रबलं निष्पन्नमोजः “ओजो वै पञ्चदशः” [मै० ३।२।१०] निजे मनसि यद्वा-आत्मनि निषिञ्चामि-निधारयामि ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - If I were to collect forces to fight out the selfish, ungenerous and audacious who are such by their sheer physical prowess and brute force in this house of yours, O divine Ruler of existence, I would train a mighty, generous, enlightened leader, warrior and protector, feed him on distilled essences of fourteen branches of knowledge, application and practice being the fifteenth, and thus perfect the ruler.